गीता प्रबंध -अरविन्द

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
गीता-प्रबंध
1.गीता से हमारी आवश्यकता और मांग

संसार में कितने ही सद्ग्रंथ हैं, वैदिक और अलौकिक भी, कितने ही आगम-निगम और स्मृति-पुराण हैं, कितने ही धर्म और दर्शन शास्त्र हैं, कितने ही मत, पंथ और संप्रदाय हैं। अधकचरे ज्ञानी अथवा सर्वथा अज्ञानी मनुष्यों के विविध मन इन सब में ऐसी अनन्य-बुद्धि और आवेश-से अपने-आपको बांधे हुए हैं कि जो कोइ जिस ग्रंथ या मत को मानता है उसी को सब कुछ जानता है, यह देख भी नहीं पाता कि उसके परे और भी कुछ है। वह अपने चित्त में ऐसा हठ पकड़े रहता है कि बस यहीं या वही ग्रंथ भगवान् का सनातन वचन है और बाकी सब ग्रंथ या तो केवल ढोंग हैं या यदि उनमें कहीं कोई भगवत्प्रेरणा या भाव है तो वह अधूरा है, और इसी तरह से ऐसा हठ कि हमारा अमुख दर्शन ही बुद्धि की पराकाष्ठा है-बाकी सब दर्शन या तो केवल भ्रम हैं अथवा उनमें यदि कहीं आशिंक सत्य है भी तो उतना ही है जो उनके एकमात्र सच्चे दार्शनिक संप्रदाय के अनुकूल है। भौतिक विज्ञान के आविष्कारों का भी एक संप्रदाय-सा बन गया है और उसके नाम पर धर्म और अध्यात्म को अज्ञान और अंधविश्वास तथा दर्शन-शास्त्र को कूडा-करकट और खयाली पुलाव कहकर उड़ा दिया गया है। और, बड़े मजे की बात तो यह है कि बड़े-बड़े बुद्धिमान् लोग भी प्रायः इन पक्षपातपूर्ण आग्रहों आौर व्यर्थ के झगड़ों में पड़कर इन्हें पुष्टि देते रहे हैं, कोई तमोभाव ही उनके निर्मल सात्विक ज्ञान के प्रकाश में मिलकर , उसे बौद्धिक अहंकार या आध्यात्मिक अभिमान से ढककर उन्हें इस प्रकार भटकाता रहा है।
अब अवश्य ही मनुष्य-जाति पहले की अपेक्षा कुछ अधिक विनयशील और समझदार होती हुई दीख पड़ती है; अब हम लोग अपने भाईयों को ईश्वरीय सत्य के नाम पर कत्ल नहीं करते, न इसलिये मार ही डालते हैं कि उनके अंतःकरणों की शिक्षा-दीक्षा हम लोगों की शिक्षा-दीक्षा से भिन्न है या उन अंतःकरणों का सांचा-ढांचा कुछ और ही प्रकार का है, अब हम लोग अपने पड़ोसियों को, अपनी राय से भिन्न राय रखने की हिमाकत या जुर्रत करने पर, कोसते या भला-बुरा कहते कुछ सकुचाते हैं, अब तो हम लोग यह भी स्वीकार करने लगे हैं कि सत्य सर्वत्र है, केवल हम ही उसके ठेकेदार नहीं, अब हम दूसरे धर्मों और दर्शनों को भी देखने लगे हैं इसलिये नहीं कि उन्हें के झूठा साबित करके बदनाम करें, बल्कि इसलिये कि देखें उनमें कहां क्या सदुपदेश है और उससे हमें क्या सहायता मिल सकती है। परंतु फिर भी हमें यह कहने का अभ्यास अभी तक बना हुआ है कि हम जिसे सत्य कहते और मानते हैं वही वह परम ज्ञान है जो अन्य धर्मों या दर्शनों को नहीं मिला और यदि मिला भी है तो अंशमात्र अधूरे तौर पर, अर्थात् उनमें सत्य केवल उन गौण और निम्नतर अंगों का ही निरूपण है जो कम विकसित लोगों के लिये ही उपयोगी हैं या उन्हें हमारी ऊंचाईयों तक उठाने कि लिये निम्न साधनमात्र हैं।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-