काल -वैशेषिक दर्शन

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  • महर्षि कणाद ने वैशेषिकसूत्र में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय नामक छ: पदार्थों का निर्देश किया और प्रशस्तपाद प्रभृति भाष्यकारों ने प्राय: कणाद के मन्तव्य का अनुसरण करते हुए पदार्थों का विश्लेषण किया।
  • काल के संदर्भ में पूरी वैशेषिक परम्परा के चिन्तन का समाहार सा रखते हुए अन्नंभट्ट ने यह बताया कि 'अतीत आदि के व्यवहार का हेतु काल कहलाता है। वह एक है, विभु है तथा नित्य है।[1]' इस परिभाषा में जिन चार घटकों का समावेश किया गया है, उन पर वैशेषिक दर्शन के लगभग सभी आचार्यों ने गहरा विचार-विमर्श किया है।
  • कणाद ने काल के द्रव्यत्व का उल्लेख करते हुए उसके अतीतादिव्यवहारहेतुत्व पर ही अधिक बल दिया। उन्होंने कहा कि अपर (कनिष्ठ) आदि में जो अपर आदि (कनिष्ठ होने) का ज्ञान होता है वह काल की सिद्धि में लिंग अर्थात् निमित्त कारण है। अधिक सूर्यक्रिया के सम्बन्ध से युक्त भ्राता को पर (ज्येष्ठ) तथा अल्प सूर्यक्रिया के सम्बन्ध से युक्त भ्राता को अपर (कनिष्ठ) कहा जाता है। अत: सूर्य और पिण्ड (शरीर) के मध्य जो परत्वापरत्व-बोधक और युगपत, चिर, क्षिप्र आदि सम्बन्धघटक द्रव्य है, वही काल है।[2]
  • प्रशस्तपाद ने आकाश एवं दिक के समान काल को पारिभाषिक संज्ञा माना और सूत्रकार के कथन का अनुगमन करते हुए यह कहा कि पौर्वापर्य्य, यौगपद्य, अयौगपद्य, चिरत्व और क्षिप्रत्व की प्रतीतियाँ काल की अनुमिति की हेतु हैं।
  • काल की सत्ता के सिद्ध होने पर भी उसके द्रव्यत्व पर उठाई जाने वाली शंकाओं का समाधान वैशेषिक इस प्रकार करते हैं कि पृथ्वी आदि अन्य आठ द्रव्यों में से किसी में भी क्षण, निमेष आदि कालबोधक प्रतीतियों को संयुक्त नहीं किया जा सकता अत: जिस द्रव्य के साथ हमारे क्षण आदि का ज्ञान संयुक्त होता है, वह काल है।
  • श्रीधराचार्य ने सूर्यक्रिया या सूर्यपरिवर्तन के स्थान पर मनुष्य-शरीर के भौतिक परिवर्तन की प्रतीति को काल का अनुमापक बताकर एक नई उद्भावना की।[3]
  • इसी प्रकार वल्लभाचार्य ने न्यायलीलावती में यह कहा कि 'यह पुस्तक वर्तमान है', 'यह मेज वर्तमान है', ऐसे वाक्यों में विषय का भेद होने पर भी उनकी वर्तमानता एक जैसी है।[4]
  • अत: वर्तमानत्व ही काल का ज्ञापक है। अस्तित्व व्यक्तिगत स्वरूप या सत्ता सामान्य स्वरूप को द्योतित करता है, जबकि वर्तमानत्व वस्तुओं के कालिक सम्बन्ध का निदर्शक है।
  • सूत्रकार ने यह भी कहा कि अन्य कार्यों का निमित्त कारण काल है।[5]
  • इसी प्रकार प्रशस्तपाद के कथनों का भी यह सार है कि -
  1. पर, अपर आदि प्रतीतियों का
  2. वस्तुओं की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का
  3. तथा क्षण, निमेष आदि प्रतीतियों का जो हेतु है, वह काल कहलाता है।
  • शिवादित्य और चन्द्रकान्त ने काल को पृथक् द्रव्य नहीं माना। उनके अनुसार काल और दिक् आकाश से अभिन्न हैं।
  • रघुनाथ शिरोमणि ने भी काल को द्रव्य न मानते हुए यह कहा कि ईश्वर से अतिरिक्त काल को पृथक् द्रव्य मानने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ईश्वर ही कालव्यवहार का विषय है।[6]
  • किन्तु दिनकर भट्ट वर वैणीदत्त ने रघुन के मत का खण्डन करते हुए यह प्रतिपादित किया कि काल को पृथक् द्रव्य माने बिना हमारी कालिक अनुभूतियों का समाधान नहीं होता।
  • जयन्तभट्ट, नागेशभट्ट, योगभाष्यकार व्यास आदि के अनुसार काल की संकल्पना कल्पनाप्रसूत है, काल क्षणप्रवाह मात्र है। अत: वह स्वतंत्र द्रव्य नहीं है, किन्तु वैशेषिक इनके मत को स्वीकार नहीं करते और काल को एक पृथक् द्रव्य ही मानते हैं।
  • संक्षेप में वैशेषिक मत का सार यह है कि क्षण, निमेष आदि काल की व्यावहारिक उपाधियाँ हैं। इनका नाश होने से भी काल का नाश नहीं होता, अत: काल एक नित्य द्रव्य है, उपाधिभेद से उसमें अनेकता होने पर भी काल वस्तुत: एक है और पर, अपर आदि कालिक प्रतीतियों का कोई अन्य आधार द्रव्य न होने के कारण काल पृथक् रूप से एक विभु एवं नित्य द्रव्य है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अतीतानागतहेतु: काल:, स चैको विभुर्नित्यश्च, त.सं.
  2. अपरस्मिन्नपरं युगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिंगानि, वै.सू.
  3. युवस्थविरयों: शरीरावस्थाभेदेन तत्कारणतया कालसंयोगेऽनुमिते सति पश्चात्तयो: कालविशिष्टावगति:, न्या. क. पृ. 158
  4. एवं कालोऽपि सर्वत्राभिन्नाकारवर्तमानप्रत्ययवेद्य:, न्यायलीलावती, पृ. 310
  5. नित्येष्वभावात् अनित्येषु भावात् कारणं कालाख्येति, वै.सू. 2.2.9
  6. पदार्थतत्त्वनिर्णय:, पृ. 23

बाहरी कड़ियाँ

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