- शरीर रूपी आत्मा को जो अच्छा लगे चार्वाक की दृष्टि में वही सुख है। अंगना आदि के आलिंगन आदि से जो सुख मिलता है, वही काम रूप प्रमुख पुरुषार्थ है। ये लौकिक सुख, दु:ख से मिश्रित होने के कारण पुरुषार्थ कैसे हो सकते हैं? यह प्रश्न नहीं करना चाहिए। सांसारिक हर सुख, दु:ख से मिश्रित तो होता ही है। बुद्धिमान व्यक्ति दु:ख को छोड़ कर केवल सुख का ही उपभोग ठीक वैसे ही करता है, जैसे आम, संतरा आदि फल का सेवन करने वाला व्यक्ति छिलके एवं गुठली का त्यागकर फल का रसास्वाद लेता है, जैसे मछली खाने वाला व्यक्ति छिलके एवं काँटें के साथ मिली मछली से काँटों एवं छिलकों को निकाल कर मात्र खाद्य अंश को ही खाता है। धान की कामना करने वाला व्यक्ति खेत से पुआल के साथ धान को लाता तो अवश्य है, परन्तु अनपेक्षित अंश पुआल को छोड़ कर मात्र धान का ही संग्रह करता है। फलत: संसार में दु:ख के भय से अनुकूल लगने वाले सुख का त्याग कथमपि समुचित नहीं है ऐसा चार्वाक दर्शन का अभिमत है।
- संसार में कभी भी यह नहीं देखा गया है कि खेतों में किसान धान के बीज इसलिए नहीं बोता है कि धान को हरिण भविष्य में खा कर नष्ट कर देंगे। देश में भिक्षुक हैं इसलिए भोजन निर्माण के लिए कोई बटलोई चूल्हे पर न रखता हो ऐसा भी कभी नहीं देखा जाता है। इसी प्रकार यदि कोई दु:ख से अत्यन्त डरने वाला व्यक्ति सुख को छोड़ देता है तो वह पशु से भी बड़ा मूर्ख ही माना जायेगा। वास्तव में यह मूर्खता से भरा ही विचार होगा कि सुख दु:ख के साथ उत्पन्न होता है अत: सुख का सर्वथा परित्याग कर देना श्रेयस्कर है। क्या अपना हित चाहने वाला कोई मनुष्य कभी भी सफ़ेद एवं अच्छे धान के दानों को केवल इसलिए छोड़ता है कि वह धान भूसी एवं अनपेक्षित धूल से युक्त है। कभी नहीं। परिणामस्वरूप सुख पुरुषार्थ है यह सिद्ध होता है।
- यदि संसार में कोई स्वर्ग आदि के रूप में अलौकिक सुख मान्य नहीं है तो विद्वान् लोग पर्याप्त धन एवं प्रयास से साध्य, यज्ञादि कर्मों के अनुष्ठान में सोत्साह प्रवृत्त क्यों होते हैं? लोग अत्यन्त श्रद्धा एवं उत्साह से इन भव्य आयोजनों में तत्पर देखे जाते हैं। फलत: अलौकिक सुख स्वर्ग आदि के रूप में अवश्य मानना चाहिए यह तर्क युक्त नहीं है। इन वैदिक अनुष्ठानों को; झूठा, परस्पर विरोधी एवं पुनरुक्ति दोष से दूषित होने के कारण प्रमाणिक किसी भी प्रकार से नहीं माना जा सकता है। अपने को वैदिक मानने वाले धूर्त्त आपस में ही एक दूसरे को खण्डन करते देखे जा सकते हैं। कर्म काण्ड को प्रमाण मानने वाले विद्वान् ज्ञान काण्ड की, तथा ज्ञान काण्ड को प्रमाण स्वीकार करने वाले वैदिक विद्वान् कर्मकाण्ड की परस्पर निन्दा करते देखे जाते हैं। इस प्रकार इन वैदिकों के व्यवहार से ही इन दोनों वैदिक मतों की नि:सारता स्वत: सिद्ध हो जाती है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अग्निहोत्रं त्रयो वेदास्त्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम्। बुद्धिपौरुषहीनानां जीविकेति बृहस्पति:॥ -सर्वदर्शन संग्रह- पृ0 6
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शौनकीया चतुर्ध्यापिका |
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