कवक

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कवक जीवों का एक विशाल समुदाय हैं, जिसे साधारणतया वनस्पतियों में वर्गीकृत किया जाता है। इस वर्ग के सदस्य पर्णहरिम रहित होते हैं और इनमें प्रजनन बीजाणुओं के द्वारा होता है। ये सभी सूकाय वनस्पतियाँ हैं, अर्थात्‌ इनके शरीर के ऊतकों में कोई भेदकरण नहीं होता। दूसरे शब्दों में, इनमें जड़, तना और पत्तियाँ नहीं होतीं तथा इनमें अधिक प्रगतिशील पौधों की भाँति संवहनीय तंत्र नहीं होता है। पहले इस प्रकार के सभी जीव एक ही वर्ग कवक के अंतर्गत परिगाणित होते थे, परंतु अब वनस्पति विज्ञानविदों ने कवक वर्ग के अतिरिक्त दो अन्य वर्गों की स्थापना की है, जिनमें क्रमानुसार जीवाणु और श्लेष्मोर्णिका (slime mold) हैं। जीवाणु एककोशीय होते हैं, जिनमें प्रारूपिक नाभिक नहीं होता तथा श्लेष्मोर्णिक की बनावट और पोषाहार जंतुओं की भाँति होता है। कवक अध्ययन के विज्ञान को 'कवक विज्ञान' (माइकॉलोजी) कहते हैं।

वैज्ञानिक मत

कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि कवक की उत्पत्ति शैवाल में पर्णहरिम की हानि होने से हुई है। यदि वास्तव में ऐसा हुआ है, तो कवक को 'पादप सृष्टि' में रखना उचित ही है। दूसरे कुछ वैज्ञानिकों का विश्वास है कि इनकी उत्पत्ति रंगहीन कशाभ (फ़्लैजेलेटा) या प्रजीवा (प्रोटोज़ोआ) से हुई है, जो सदा से ही पर्णहरिम रहित थे। इस विचारधारा के अनुसार इन्हें वानस्पतिक सृष्टि में न रखकर एक पृथक् सृष्टि में वर्गीकृत किया जाना चाहिए। वास्तविक कवक के अंतर्गत कुछ ऐसी परिचित वस्तुएँ आती हैं, जैसे- गुँधे हुए आटे से पावरोटी बनाने में सहायक एककोशीय खमीर (यीस्ट), बासी रोटियों पर रूई की भाँति उगा फफूँद, चर्म को मलिन करने वाले दाद के कीटाणु, फ़सल के नाशकारी 'रतुआ तथा कंडुवा' (रस्ट ऐंड स्मट) और खाने योग्य एव विषैली खुंभियाँ (mushrooms) आदि।

पोषाहार

पर्णहरिम की अनुपस्थिति के कारण कवक, कार्बन डाइ-ऑक्साइड और जल द्वारा कार्बोहाइड्रेट निर्मित करने में असमर्थ होते हैं। अत: अपने भोज्य पदार्थों की प्राप्ति के लिए अन्य वनस्पतियों, जंतुओं तथा उनके मृत शरीर पर ही आश्रित रहते हैं। इनकी जीवन-विधि और संरचना इसी पर आश्रित हैं। यद्यपि कवक कार्बन डाइ-ऑक्साइड से शर्करा निर्मित करने में पूर्णतया असमर्थ होते हैं तथापि ये साधारण विलेय शर्करा से जटिल कार्बोहाइड्रेट का संश्लेषण कर लेते हैं, जिससे इनकी कोशिकाभित्ति का निर्माण होता है। यदि इन्हें साधारण कार्बोहाइड्रेट और नाइट्रोजन यौगिक दिए जाएँ, तो कवक इनसे प्रोटीन और अंतत: प्रोटोप्लाज्म निर्मित कर लेते हैं। मृतोपजीवी (सैप्रोफ़ाइट) के रूप में कवक या तो कार्बनिक पदार्थों, उत्सर्जित पदार्थ या मृत ऊतकों को विश्लेषित करके भोजन प्राप्त करते हैं। परजीवी के रूप में कवक जीवित कोशों पर आश्रित रहते हैं। सहजीवी के रूप में ये अपना संबंध किसी अन्य जीव से स्थापित कर लेते हैं, जिसके फलस्वरूप इस मैत्री का लाभ दोनों को ही मिल जाता है। इन दोनों प्रकार की भोजनरीतियों के मध्य में कुछ कवक आते हैं, जो परिस्थिति के अनुसार अपनी भोजनप्रणाली बदलते रहते हैं।

  • रहन-सहन और वितरण के अनुसार कवक की जातियों की संख्या लगभग 80 से 90 हज़ार तक है। संभवत: कवक सबसे अधिक व्यापक हैं।

वास स्थान

जलीय कवक में 'एकलाया', 'सैप्रोलेग्निया' आदि; मिट्टी में पाए जाने वाले 'म्यूकर', 'पेनिसिलियम', 'एस्परजिलस', 'फ़्यूज़ेरियम' आदि; लकड़ी पर पाए जाने वाले 'मेरूलियस लैक्रिमैंस'; गोबर पर उगने वाले 'पाइलोबोलस' तथा 'सॉरडेरिया' आदि; वसा में उगने वाले 'यूरोटियम' और पेनिसिलियम की जातियाँ हैं। ये वायु तथा अन्य जीवों के शरीर के भीतर या उनके ऊपर भी पाए जाते हैं। वास्तव में विश्व के उन सभी स्थानों में कवक की उत्पत्ति हो सकती है, जहाँ कहीं भी इन्हें कार्बनिक यौगिक की प्राप्ति हो सके। कुछ कवक तो लाइकेन की संरचना में भाग लेते हैं, जो कड़ी चट्टानों पर, सूखे स्थान में तथा पर्याप्त ऊँचे ताप में उगते हैं, जहाँ साधारणतया कोई भी अन्य जीव नहीं रह सकता। कवक की अधिकाधिक वृद्धि विशेष रूप से आर्द्र परिस्थितियों में, अँधेरे में या मंद प्रकाश में होती है। इसीलिए छत्रक अधिक संख्या में आर्द्र और उष्ण ताप वाले जंगलों में उगते हैं।

शरीर संरचना

कुछ एककोशिकीय जातियों, उदाहरणार्थ खमीर के अतिरिक्त अन्य सभी जातियों का शरीर कोशिकामय होता है, जो सूक्ष्मदर्शीय रेशों से निर्मित होता है, और जिससे प्रत्येक दिशा में शाखाएँ निकलकर जीवाधार के ऊपर या भीतर फैली रहती हैं। प्रत्येक रेशे को 'कवक तंतु' कहा जाता है और इन कवक तंतुओं के समूह को 'कवकजाल' (माइसीलियम) कहते हैं। प्रत्येक कवक तंतु एक पतली, पारदर्शी नलीय दीवार का बना होता है, जिसमें जीवद्रव्य का एक स्तर होता है, या जो जीवद्रव्य से पूर्णतया भरा होता है। ये शाखी या अशाखी रहते हैं और इनकी मोटाई 0.5 म्यू से लेकर 100 म्यू तक होती है। जीवद्रव्य पूरे कवक तंतु में फैला रहता है, जिसमें नाभिक बिना किसी निश्चित व्यवस्था के बिखरे रहते हैं, अन्यथा कवक तंतु दीवारों के पट द्वारा विभाजित रहते हैं, जिससे संरचना बहुकोशिकीय होती है। पहली अवस्था को बहुनाभिक तथा दूसरी को पटयुक्त अवस्था कहते हैं। प्रत्येक कोशिका में एक, दो या अधिक नाभिक हो सकते हैं।

अधिकांश कवक के तंतु रंगहीन होते हैं, किंतु कुछ में ये विभिन्न रंगों से रँगे होते हैं। साधारण कवक का शरीर ढीले कवक तंतुओं से निर्मित होता है, किंतु कुछ उच्च कवकों के जीवनवृत्त की कुछ अवस्थाओं में उनसे कवक जाल घने होकर सघन ऊतक बनाते हैं, जिसे संजीवितक और कूटजीवितक कहते हैं। दीर्घितक ढीला ऊतक होता है, जिसमें प्रत्येक कवक तंतु अपना अपनत्व बनाए रखता है। कूटजीवितक में सूत्र काफ़ी घने होते हैं तथा वे अपना ऐकात्म्य खो बैठते हैं, और काटने पर उच्चवर्गीय पौधों के जीवितक कोशों के समान दिखाई पड़ते हैं। इन ऊतकों से विभिन्न प्रकार के वानस्पतिक और प्रजनन विन्यास का निर्माण होता है। कवक की बनावट चाहे कितनी ही जटिल क्यों न हो, पर वे सभी कवक तंतुओं द्वारा ही निर्मित होते हैं। ये तंतु इतने सघन होते हैं, कि वे ऊतक के रूप में प्रतीत होते हैं, किंतु कवकों में कभी भी वास्तविक ऊतक नहीं होता।

कोशिकाभित्ति

कुछ जातियों को छोड़कर कवकों की कोशिकाभित्तियों की रासायनिक व्याकृतियाँ विभिन्न जातियों में भिन्न-भिन्न होती हैं। कुछ जातियों की कोशिकाभित्तियों में सेल्युलोस या एक विशेष प्रकार का कवक सेल्यूलोस पाया जाता है तथा अन्य जातियों में 'काइटिन' कोशिकाभित्ति के निर्माण के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी होता हैं। कई कवकों में कैलोस तथा अन्य कार्बनिक पदार्थ भी कोशिकाभित्ति में पाए गए हैं। कवक तंतु में नाभिक के अतिरिक्त कोशिकाद्रव्य तैलविंदु तथा अन्य पदार्थ उपस्थित रहते हैं, उदाहरणार्थ कैल्सियम ऑक्सलेट के रवे, प्रोटीन कण इत्यादि। प्रत्येक जाति में प्रोटोप्लास्ट, क्लोरोप्लास्ट रहित होता है। यद्यपि कोशिकाओं में स्टार्च का अभाव होता है, तथापि एक दूसरा जटिल पौलिसैकेराइड ग्लाईकोजन पाया जाता है। मृतोपजीवी कवक आधार के निकट संस्पर्श में आकर अपना भोजन अपने रेशों की दीवार से विसरण द्वारा प्राप्त करते हैं। पराश्रयी कवक जंतुओं और वनस्पतियों की कोशिकाओं से पोषित होते हैं और इस प्रकार ये अपने पोषक को हानि पहुँचाते हैं, जिसके कारण वनस्पतियों एवं जंतुओं में व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं। कवकजाल प्राय: पोषकों के धरातल पर अथवा पोषकों के भीतरी स्थानों में अंत: कोशिका या पोषकों के कोशों को छेदकर उगते हैं। कवक तंतु के अग्रभाग से एक प्रकार के एन्जाइम का स्राव होता है, जिससे इन्हें कोशकाभित्ति के बेधन तथा विघटन में सहायता प्राप्त होती है। अंत: कोशिक तंतु एक विशेष प्रकर की शाखाओं को पोषक कोशिकाओं में भेजते हैं, जिन्हें आशोषांग कहते हैं। ये आशोषांग अति सूक्ष्म छिद्रों द्वारा कोशिका भित्ति में प्रवेश करते हैं। ये विशेषित अवशोषक अंग होते हैं, जो विभिन्न जातियों में विभिन्न प्रकार के होते हैं। जंतुओं में पाए जाने वाले पराश्रयी कवकों में अवशोषकांग नहीं पाए गए हैं।

कीटों द्वारा कवक खेती

दक्षिण अफ्रीका में कुछ चींटियाँ तथा दीमकें कवकों का केवल आहार ही नहीं करतीं, वरन्‌ उनको उगाती भी हैं। ये जीव विशेष प्रकार के कार्बनिक पदार्थो को इकट्ठा कर अपने घोसलों में बिछाते हैं, जिससे कवक इन पर अच्छी तरह उग सकें। कुछ दशाओं में ये कवकों का रोपण करते हैं। विद्वानों का ऐसा विचार है कि एक जाति की चींटी अपना विशेष कवक उत्पन्न करती हैं।

कीटों पर उगने वाले कवक

अनेक कवक कीटों पर ही उगते हैं। एंटोमॉफ़्थोरा की कई जातियाँ कीटाश्रयी हैं। एंटोमॉफ़्‌थोरा मस्की साधारण मक्खियों पर आक्रमण करता है। कवक जाल से मक्खियों को पूरा शरीर भर जाता है और बीजाणुओं के परिपक्व होने पर वे प्रक्षिप्त होकर मृत मक्खी के चारों और वृत्ताकार क्षेत्र में फैल जाते हैं। कॉर्डिसेप्स की कई जातियाँ कीटों पर ही आश्रित रहती हैं। कॉडिसेप्स मिलिटैरिस, प्यूपा और इल्ली पर आश्रित रहता है। एक कवक बोवेरिया बैसियाना रेशम के कीड़े की मुख्य व्याधि श्वेतमारी के लिए उत्तरदायी है।

शिकारी कवक

शिकारी कवकों को प्राय: 'हिंसाकारी कवक' कहा जाता है। कवक की कुछ जातियाँ मिट्टी और जल में रहती हैं। ये जातियाँ अपने भोजन के लिए अमीबा, सूत्र-कृमि एवं अन्य छोटे-छोटे भूमीय जंतुओं को ग्रहण करती हैं, जैसे ट्राइकोथेसियम साइटॉस्पोरियम। परंतु कुछ दूसरे कवक अपने शिकार को पकड़ने के लिए विशेष प्रकार की युक्तियों का उपयोग करते हैं; उदाहरणार्थ डेक्टीलेरिया रिंग्स में संकुचित वलय तथा सोमरस्टोर्फ़िया में चिपकने वाली खूँटियाँ होती हैं। कवक तंतु कुंडली बनाकर सूत्र-कृमि के चारों और चिपट जाते हैं और उसे चूस डालते हैं। कवक विज्ञान में कवक तंतुओं द्वारा प्रचूषण का यह एक विचित्र और आश्चर्यजनक उदाहरण है।

सहजीवन

कवक उच्च वनस्पतियों से सहजीवन का संबंध स्थापित कर कवकमूलता बनाते हैं। इस सहजीवन संबंध की स्थापना पेड़ों, झड़ियों तथा टेरिडोफ़ाइट्स और ब्रायोफ़ाइट्स से भी होती है। कवक नीले तथा हरे शैवाल के साहचर्य से लाइकेन की स्थापना करते हैं। कवक और इन जीवों का यथार्थ संबंध अभी तक स्पष्ट ज्ञात नहीं हो सका है।

प्रतिजीविता

कवक प्राय: ऐसे जटिल कार्बनिक उत्सर्गी पदार्थों का उत्पादन करते हैं, जो दूसरों की वृद्धि पर प्रभाव डालते हैं। इसकी क्रिया कभी-कभी उत्तेजक होती है, जैसे कैण्वक नामक पदार्थ की, परंतु अधिकतर इनका कार्य निरोधी होता है। इस दिशा को प्रतिजीविता कहते हैं। इस क्रिया के ज्ञान से ही रोगाणुनाशी पदार्थों का आविष्कार हुआ है।

प्रजनन

कवकों में प्रजनन कार्य विशेष रूप से अलैंगिक और लैंगिक दोनों रीतियों से होता है, किंतु अधिकांश कवकों में इनमें से केवल एक ही रीति से होता है। प्रजननांग के निर्माण में या तो संपूर्ण सूकाय (शरीर) एक या अनेक प्रजनन अंग में परिवर्तित हो जाता है या केवल इसका कोई एक भाग। इनमें से पूर्व भाग को एकफलिक और अपर भाग को बहुफलिक कहते हैं।

अलैंगिक प्रजनन

सबसे साधारण प्रकार के जनन में एक या अधिक कोशिकाएँ पृथक् होकर स्वतंत्र रूप से बढ़ती हैं और नए कवक सूत्र को जन्म देती हैं। यद्यपि दैहिक रूप से ये बीजाणुओं के समान आचरण करती हैं, तथापि उनसे भिन्न होती हैं और इनको चिपिटो-बीजाणु या खमीर (यीस्ट) में कुड्म (bud) या कुड्मलाणु (gemma) नाम दिया जाता है। बीजाणु सूक्ष्म होते हैं और इनके आकार तथा संरचनाएँ भिन्न-भिन्न जातियों के लिए विभिन्न होती हैं। ये बीजाणु जन्म देने वाले सूत्रों से आकार प्रकार, रंग, उत्पत्ति स्थान और ढंग में भिन्न होते हैं। फिर ये बीजाणु स्वयं अलग-अलग आकार, प्रकार और रंग के होते हैं तथा पटयुक्त वा पटरहित रहते हैं। प्राय: ये अति सूक्ष्म होते हैं और बहुत कम दशाओं में ये बिना सूक्ष्मदर्शी के देखे जा सकते हैं। बीजाणु एक विशेष प्रकार के थैले या आवरण में निर्मित होते हैं, जिन्हें बीजाणुधानी कहते हैं। जब ये बीजाणु चर होते हैं, तब इन्हें चलजन्यु (जूस्पोर्स) कहते हैं। इनमें एक या दो कशाभ हो सकते हैं। यदि बीजाणु किसी कवकसूत्र के शीर्ष से कटकर पृथक् होते हैं, तब ये कणी कहलाते हैं और सूत्र तब कणीधर कहलाता है। कणीधरों में बहुत भिन्नता होती है। यह बहुत छोटे तथा सरल से लेकर लंबे तथा शाखित तक होते हैं। ये व्यवस्थाहीन, एक दूसरे से पूर्णतया स्वतंत्र होते हैं अथवा विशेष रूप से विभिन्न संरचनाओं में संघटित रहते हैं।

लैंगिक प्रजनन

लैंगिक प्रजनन में दो अनुरूप नाभिकों का सम्मेल होता है। इस विधि में तीन अवस्थाएँ होती हैं-

  1. जीवद्रव्य-सायुज्यन : इस क्रिया से दो एकल नाभिक एक कोशिका में आ जाते हैं।
  2. नाभिक-सायुज्यन : इसमें दोनों एकल नाभिक मिलकर एक द्विगुणित निषेचनज नाभिक का निर्माण करते हैं।
  3. अर्धसूत्रण : इसके द्वारा द्विगुणित युक्त नाभिक विभाजित होकर चार एकल नाभिकों को जन्म देते हैं।

कवकों के लैंगिक अंगों को युग्मकधानी कहते हैं। ये युग्मकधानी विभिन्न लैंगिक कोशिकाओं को निर्मित करते हैं, जिन्हें युग्मक कहते हैं या कभी-कभी इनमें केवल युग्मक नाभिक ही होता है। जब युग्मकधानी और युग्मक आपस में आकार प्रकार में समान होते हैं, तब इस प्रकार की दशा को समयुग्मकधानी कहते हैं। जब ये बनावट, आकार-प्रकार में भिन्न होते हैं, तब इन्हें विषमयुग्मकधानी और विषमयुग्मक कहते हैं। पुरुष युग्मकधानी को पुंधानी और स्त्री युग्मकधानी को स्त्रीधानी कहते हैं।

निम्नलिखित कई साधनों द्वारा लैंगिक नाभिक एक कोशिका में आ जाते हैं, जिससे नाभिक सायुज्य हो सके :

  1. द्वि-युग्मक : ये युग्मक, जो आकार में समान या भिन्न होते हैं और जिनमें दोनों ही या एक चलायमान होता है, मिलकर निषेचनक (ज़ाइगोट) का निर्माण करते हैं।
  2. लिंगसंगम : इसमें पुंधानी पुरुष नाभिक को एक छिद्र या निषेचन नाल द्वारा स्त्रीधानी में भेजता है।
  3. युग्म संगम : इसमें दो अभिन्न अखंड कोशिकाओं का योजन होता है।
  4. प्रशुक्रजन्युता : इसमें पुंजन्यु, जो सूक्ष्म, एकनाभिक नर पिंड होता है, किसी भी स्त्री युग्मकधानी या विशेष संग्रहणशील कवकतंतु अथवा दैहिक कवक तंत्रों तक ले जाए जाते हैं और वहाँ पुंजन्यु की अंतर्वस्तुएँ एक छिद्र द्वारा स्त्री इंद्रिय में पहुँचती हैं।
  5. दैहिक संगम : उच्चवर्गीय कवकों में लैंगिक अंग नहीं होते, उनमें देह कोशिका ही लैंगिक कार्य करती हैं।

कुछ कवकों में नाभिकों का सायुज्यन एक विशेष कोशिका में होता है। ऐस्कोमाइसीटीज़ में यह विशेष अंग एक थैले के रूप में विकसित होता है, जिसे ऐस्कस कहते हैं। ऐस्कस में अर्धसूत्रणा होती है, जिसके फलस्वरूप पहले चार, बाद में आठ नाभिक होते हैं, जो आठ धानी-बीजाणुओं में आयोजित होते हैं। ये ऐस्कस बीजाणु एकल होते हैं और ऐस्कस में व्यवस्थित होते हैं। बेसीडिओमाइसीटीज में वे कोशिकाएँ, जिनमें नाभिक सायुज्यित होते हैं, बेसीडियम का रूप धारण करती हैं, जिसमें अर्धक विभाजन के पश्चात्‌ चार नाभिक बनते हैं। इसी समय बेसिडियम में से चार कणीवृंत निकलते हैं, जिनके सिरे पर एक नाभिक चला जाता है और वहीं बेसिडियम बीजाणु का निर्माण होता है। इस प्रकार ये बेसिडियम बीजाणु बाह्यत: बेसिडियम पर आयोजित होते हैं। कुछ अधिक उच्च बेसिडियोमाइसीटीज अपने बेसिडियम एक विशेष फलन काय में बनाते हैं, जिसे बेसीडिओ काय कहते हैं।

आर्थिक महत्व

कवकों के आहार पोषाण को देखने से ज्ञात होता है कि इनकी तथा हमारी आवश्यकताओं में असाधारण समानता है। ये न केवल मनुष्य के भोज्य पदार्थ पर हाथ साफ़ करते हैं, वरन्‌ मनुष्य, जीव-जंतु तथा पौधों पर आक्रमण कर उन्हें रुग्ण कर देते हैं। परंतु कई दशाओं में ये मनुष्य के लिए लाभदायक भी सिद्ध होते हैं।

कवकों से लाभ

कवकों से होने वाले लाभ इस प्रकार हैं-

  1. औषधि के रूप में प्राचीन काल में कवकों का प्रयोग बहुत अधिक होता था, परंतु वर्तमान समय में कुछ कम हो गया है। खमीर (यीस्ट) विटामिन 'बी' तथा एरगेस्ट्रॉल के कारण प्रयोग में लाया जाता है। इसी प्रकार परप्यूरिया के जलाश्म का प्रयोग प्रसूति विषयक कार्यों में होता आया है। हाल ही में जीवाणुद्वेषी ओषधियाँ, क्लोरोमाइसिटिन तथा टेरामाइसिन, सब कवकों द्वारा ही निकाली गई हैं।
  2. कवक औद्यौगिक कार्यों में भी प्रयोग में आते हैं। पावरोटी, मदिरा, अन्य आसवों तथा अम्लों के बनाने में किण्वन किया जाता है, जो कवकों द्वारा ही संपन्न होता है, उदाहरणत: सैकारामाइसीज़ सेरेविसी रोटी बनाने में प्रयुक्त होता है, म्यूकर ओराइज़ी मदिरा बनाने में। इसके अतिरिक्त कवक कई प्रकार के पनीर की उत्पत्ति में तथा तंतुवेचन में भी काम आते हैं।
  3. भोजन के रूप में भी कवकों का विशेष महत्व रहा है। अधिकतर तो ये जंगलों से एकत्र किए जाते हैं और इनमें मौरकेला एस्क्यूलेंटा और ऐगेरिकस केंपेस्ट्रिस मुख्य हैं। परंतु वर्तमान काल में बहुत से देशों में खुंभी की खेती की जाने लगी हैं।

कवकों से हानि

कवकों से होने वाली हानियाँ इस प्रकार हैं-

  1. इनसे मनुष्यों में कई प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। बच्चों में कंठपाक रोग, मोनिलिया ऐलबिकैंस द्वारा; गदाक दोष, जिसमें अंग अकड़ जाते या निर्जीव हो जाते हैं, क्लेविसेप्स परप्यूरिया द्वारा; दाद, खाज आदि त्वचा के रोग ट्राइकोफ़ाइटोन टोनस्यूरेंस द्वारा तथा कवकरुजा रोग अन्य कवकों द्वारा होते हैं।
  2. जंतुओं में कवक द्वारा उत्पन्न रोग केवल पालतू पशओं में ही ज्ञात हैं। आदारुण नामक चर्मरोग, अकोरिऑन शौनलिनाई द्वारा, पक्षी, खरगोश तथा बिल्ली में उत्पन्न होता है। दाद, बैल, घोड़ा तथा कुत्ते को होता है। ऐक्टिनोमाइसीज़ बोविस द्वारा उत्पन्न 'गँठीला जबड़ा' तथा 'कड़ी जिह्वा' नामक रोग गाय, भैंस, भेड़, बकरी, सुअर आदि पशुओं में होते हैं। मछलियाँ जल कवकों द्वारा रुग्ण हो जाती हैं। इन कवकों में सैप्रोलेग्निया फ़ेरैक्स मुख्य हैं।
  3. पौधों में रोग उत्पन्न करने वाले कवक बहुत अधिक हैं तथा उनका प्रभावक्षेत्र भी विस्तृत है। आयरलैंड के 1846 ई. वाले अकाल का कारण एक कवक फ़ाइटोफ़्थोरा इन्फ़ेस्टैंस द्वारा आलू की फ़सल का सड़ जाना था। गेहूँ का रतुआ तथा कंडुवा, गन्ने का लाली रोग, रुई तथा अरहर के पौधों का उक्ठा (विल्ट) एवं सरसों का श्वेत रतुआ, ये सब कवकों द्वारा ही होते हैं। कुछ फलों की सड़ान भी कवकों द्वारा होती है। इन तथा अन्य पौधों के रोगों से प्रति वर्ष मनुष्य के धन तथा श्रम की अपरिमित हानि होती है।
  4. कवकों द्वारा हानि हमारे अनुमान से कहीं अधिक होती है। औद्योगिक हानियों में लकड़ी की सड़न मेरुलियस लेक्राइमैंस तथा पोरिया वैपोरेरिया द्वारा, तांत्विक क्षय ऐस्परजिलस, पेनिसिलियम तथा क्लैडोस्पोरियम द्वारा होते हैं। अन्य वस्तुओं के कल्क भी अनेक प्रकार के कवकों द्वारा होते हैं।
  5. पूर्वोक्त के अतिरिक्त खाद्य पदार्थों के विनाश के मूल कारण भी कवक हैं। मांस कल्क स्पोरोट्राइकम कार्निस द्वारा फलों के कल्क ग्लोमेरेला अथवा पेनिसिलियम या म्यूकर इत्यादि द्वारा, रोटी की फफूँद राइज़ोपस तथा पेनिसिलियम द्वारा होते हैं।

खाद्य कवक

कुछ कवक स्वाद में अच्छे होते हैं और इनका प्रयोग प्राय: भोजन को स्वादिष्ट और आकर्षक बनाने में होता है। भारतवर्ष में वर्षा के दिनों में पहाड़ अथवा पहाड़ के नीचे जंगलों में सड़ी और मृत वनस्पतियों के ढेरों पर अथवा जंतुओं के मृत अवशेषों पर कुछ खाद्य कवकों की जातियाँ उगी हुई पाई गई हैं। कुछ खाद्य कवक भारत के पहाड़ी और उत्तर तथा पूर्वी भारत के मैदानों में भी उगते हैं। इनका वृंत सफ़ेद, चिकना और किंचित्‌ छोटा होता है, जिसके मध्य या शीर्ष के पास एक पतला वलय होता है। इन खाद्य कवकों में से खुंबी के कृत्रिम संवर्धन के लिए उपर्युक्त समय मैदानों में अगस्त से मार्च तक और पहाड़ों पर मार्च से अक्टूबर तक माना गया है। खुंबी ताजी अथवा सुखाकर दोनों तरह से पकाई जाती है। डंठल सहित छत्रकों को प्रौढ़ होने के पूर्व ही तोड़ लिया जाता है, पानी से अच्छी तरह धोकर इनके छोटे-छोटे टुकड़े काटकर धूप में सुखा लिए जाते हैं। संपूरकों के साथ प्रोटीन स्रोत के रूप में खुंबी का उपयोग कभी-कभी किया जाता है।

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