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कर्मभूमि उपन्यास भाग-5 अध्याय-5

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अमरकान्त को जेल में रोज-रोज का समाचार किसी-न-किसी तरह मिल जाता था। जिस दिन मार-पीट और अग्निकांड की खबर मिली, उसके क्रोध का वारापार न रहा और जैसे आग बुझकर राख हो जाती है, थोड़ी देर के बाद क्रोध की जगह केवल नैराश्य रह गया। लोगों के रोने-पीटने की दर्द-भरी हाय-हाय जैसे मूर्तिमान होकर उसके सामने सिर पीट रही थी। जलते हुए घरों की लपटें जैसे उसे झुलसा डालती थीं। वह सारा भीषण दृश्य कल्पनातीत होकर सर्वनाश के समीप जा पहुंचा था और इसकी ज़िम्मेदारी किस पर थी- रुपये तो यों भी वसूल किए जाते पर इतना अत्याचार तो न होता, कुछ रिआयत तो की जाती। सरकार इस विद्रोह के बाद किसी तरह भी नर्मी का बर्ताव न कर सकती थी, लेकिन रुपया न दे सकना तो किसी मनुष्य का दोष नहीं यह मंदी की बला कहां से आई, कौन जाने- यह तो ऐसा ही है कि आंधी में किसी का छप्पर उड़ जाए और सरकार उसे दंड दे। यह शासन किसके हित के लिए है- इसका उद्देश्य क्या है-

इन विचारों से तंग आकर उसने नैराश्य में मुंह छिपाया। अत्याचार हो रहा है। होने दो। मैं क्या करूं- कर ही क्या सकता हूं मैं कौन हूं- मुझसे मतलब- कमज़ोरों के भाग्य में जब तक मार खाना लिखा है, मार खाएंगे। मैं ही यहां क्या फूलों की सेज पर सोया हुआ हूं- अगर संसार के सारे प्राणी पशु हो जाएं, तो मैं क्या करूं- जो कुछ होगा, होगा। यह भी ईश्वर की लीला है वाह रे तेरी लीला अगर ऐसी ही लीलाओं में तुम्हें आंन्द आता है, तो तुम दयामय क्यों बनते हो- जबर्दस्त का ठेंगा सिर पर, क्या यह भी ईश्वरीय नियम है-

जब सामने कोई विकट समस्या आ जाती थी, तो उसका मन नास्तिकता की ओर झुक जाता था। सारा विश्व ऋंखला-हीन, अव्यवस्थित, रहस्यमय जान पड़ता था।

उसने बान बटना शुरू किया लेकिन आंखों के सामने एक दूसरा ही अभिनय हो रहा था-वही सलोनी है, सिर के बाल खुले हुए, अर्धनग्‍न। मार पड़ रही है। उसके रूदन की करूणाजनक ध्‍वनि कानों में आने लगी। फिर मुन्नी की मूर्ति सामने आ खड़ी हुई। उसे सिपाहियों ने गिरफ्तार कर लिया है और खींचे लिए जा रहे हैं। उसके मुंह से अनायास ही निकल गया-हाय-हाय, यह क्या करते हो फिर वह सचेत हो गया और बान बटने लगा।

रात को भी यह दृश्य आंखों में फिरा करते वही क्रंदन कानों में गूंजा करता। इस सारी विपत्ति का भार अपने सिर पर लेकर वह दबा जा रहा था। इस भार को हल्का करने के लिए उसके पास कोई साधन न था। ईश्वर का बहिष्कार करके उसने मानो नौका का परित्याग कर दिया था और अथाह जल में डूबा जा रहा था। कर्म-जिज्ञासा उसे किसी तिनके का सहारा न लेने देती थी। वह किधर जा रहा है और अपने साथ लाखों निस्सहाय प्राणियों को किधर लिए जा रहा है- इसका क्या अंत होगा- इस काली घटा में कहीं चांदी की झालर है वह चाहता था, कहीं से आवाज़ आए-बढ़े आओ बढ़े आओ यही सीधा रास्ता है पर चारों तरफ निविड़, सघन अंधकार था। कहीं से कोई आवाज़ नहीं आती, कहीं प्रकाश नहीं मिलता। जब वह स्वयं अंधकार में पड़ा हुआ है, स्वयं नहीं जानता आगे स्वर्ग की शीतल छाया है, या विधवंस की भीषण ज्वाला, तो उसे क्या अधिकार है कि इतने प्राणियों की जान आफत में डाले। इसी मानसिक पराभव की दशा में उसके अंत:करण से निकला-ईश्वर, मुझे प्रकाश दो, मुझे उबारो। और वह रोने लगा।

सुबह का वक्त था, कैदियों की हाजिरी हो गई थी। अमर का मन कुछ शांत था। वह प्रचंड आवेग शांत हो गया था और आकाश में छाई हुई गर्द बैठ गई थी। चीज़ें साफ-साफ दिखाई देने लगी थीं। अमर मन में पिछली घटनाओं की आलोचना कर रहा था। कारण और कार्य के सूत्रों को मिलाने की चेष्टा करते हुए सहसा उसे एक ठोकर-सी लगी-नैना का वह पत्र और सुखदा की गिरफ्तारी। इसी से तो वह आवेश में आ गया था और समझौते का सुसाध्य मार्ग छोड़कर उस दुर्गम पथ की ओर झुक पड़ा था। इस ठोकर ने जैसे उसकी आँखें खोल दीं। मालूम हुआ, यह यश-लालसा का, व्यक्तिगत स्‍पर्धा का, सेवा के आवरण में छिपे हुए अहंकार का खेल था। इस अविचार और आवेश का परिणाम इसके सिवा और क्या होता-

अमर के समीप एक कैदी बैठा बान बट रहा था। अमर ने पूछा-तुम कैसे आए, भई-

उसने कौतूहल से देखकर कहा-'पहले तुम बताओ।'

'मुझे तो नाम की धुन थी।'

'मुझे धन की धुन थी ।'

उसी वक्त जेलर ने आकर अमर से कहा-तुम्हारा तबादला लखनऊ हो गया है। तुम्हारे बाप आए थे। तुमसे मिलना चाहते थे। तुम्हारी मुलाकात की तारीख न थी। साहब ने इंकार कर दिया।

अमर ने आश्चर्य से पूछा-मेरे पिताजी यहां आए थे-

'हां-हां, इसमें ताज्जुब की क्या बात है- मि. सलीम भी उनके साथ थे।'

'इलाके की कुछ नई खबर?'

'तुम्हारे बाप ने शायद सलीम साहब को समझाकर गांव वालों से मेल करा दिया है। शरीफ़ आदमी हैं, गांव वालों के इलाज वगैरह के लिए एक हज़ार रुपये दे दिए।'

अमर मुस्कराया।

'उन्हीं की कोशिश से तुम्हारा तबादला हो रहा है। लखनऊ में तुम्हारी बीवी भी आ गई हैं। शायद उन्हें छ: महीने की सज़ा हुई है।'

अमर खड़ा हो गया-सुखदा भी लखनऊ में है ।

अमर को अपने मन में विलक्षण शांति का अनुभव हुआ। वह निराशा कहां गई- दुर्बलता कहां गई-

वह फिर बैठकर बान बटने लगा। उसके हाथों में आज गजब की फूर्ती है। ऐसा कायापलट ऐसा मंगलमय परिवर्तन क्या अब भी ईश्वर की दया में कोई संदेह हो सकता है- उसने कांटे बोए थे। वह सब फूल हो गए।

सुखदा आज जेल में है। जो भोग-विलास पर आसक्त थी, वह आज दीनों की सेवा में अपना जीवन सार्थक कर रही है। पिताजी, जो पैसों को दांत से पकड़ते थे वह आज परोपकार में रत हैं। कोई दैवी शक्ति नहीं है तो यह सब कुछ किसकी प्रेरणा से हो रहाहै।

उसने मन की संपूर्ण श्रध्दा से ईश्वर के चरणों में वंदना की। वह भार, जिसके बोझ से वह दबा जा रहा था, उसके सिर से उतर गया था। उसकी देह हल्की थी, मन हल्का था और आगे आने वाली ऊपर की चढ़ाई, मानो उसका स्वागत कर रही थी।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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