इखनातून

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इख़नातून मिस्र का फराऊन। काल, ई.पू. 14वीं सदी का प्रथम चरण। इख़नातून धर्म चलाने वाले राजाओं में पहला था। उसका नाम मेधावी सम्राटों-सुलेमान, अशोक, हारूँअल्‌ रशीद और शार्लमान-के साथ लिया जाता है।

इख़नातून शालीन पिता आमेनहेतेप तृतीय और प्रसिद्ध माता तीई का पुत्र था। पिता की नसों में संभवत: सीरिया के मितन्नी आर्यो का रक्त बहता था और माता तीई की नसों में वन्य जातियों का रुधिर प्रवाहित था। तीई के जोड़ की रानी शक्ति और शालीनता में संभवत: मानव राजनीति के इतिहास में नहीं। ऐसे मातापिता के तनय की आत्मा की बेचैनी स्वाभाविक थी। इस प्रकार दो शक्तियां समन्वित होकर बालक में जाग उठीं और उसने अपने देश के धर्म की काया पलट दी। इख़नातून जब पिता की गद्दी पर बैठा तब वह केवल आठ वर्ष का था। 15 वर्ष की आयु में उसने अपना वह इतिहासप्रसिद्ध धर्म चलाया जो बाइबिल के प्राचीन नबियों के लिए आश्चर्य बन गया। 26-27 वर्ष की छोटी आयु थी, जब उसके तूफानी जीवन का अंत हो गया। किंतु केवल 13 वर्ष के इस लघु काल में उसने वह किया जा आधी-आधी सदी तक राज करनेवाले सम्राट् भी न कर सके।

इख़नातून ने पहले मिस्र के प्राचीन इतिहास से ज्ञान प्राप्त किया और अपने पुरखे फराऊन के जीवन और शासन की घटनाओं पर विचार किया। देवताओं की भीड़ और उनके पुजारियों की शक्ति से दबे अपने पूर्वजों की दयनीय स्थिति से उसे बड़ी व्यथा हुई । जब-जब वह अपने सपनों के सूत सुलझाता, देवताओं की भीड़ उसे बौखला देती और उनकी अनेकता की अराजकता में, वह चाहता, एक व्यवस्था बन जाए। अपने पूर्वजों की राजनीति में उत्तरी अफ्रीका के स्वतंत्र इलाकों को, दूर पश्चिमी एशिया के चार राज्यों को उसने मिस्री फराऊनों की छाया में सिकुड़ते और शासन के एक सूत्र में बँधते देखा था और उससे उसने अपने मन में एक नई व्यवस्था की नींव डाली। उसने कहा-जैसे नील नद के उद्गम से फिलिस्तीन और सीरिया तक एक फराऊन का साम्राज्य है, क्यों नहीं वैसे ही देवताओं की संख्यातीत भीड़ के बदले फराऊनी साम्राज्य की सीमाओं तक बस एक देवता का साम्राज्य व्यापे, मात्र एक की पूजा हो? और इस चिंतन के समय उसकी दृष्टि देवताओं की भीड़ पार कर सूर्य के बिंब से जा टकराई। उस दह्यशील प्रकाशमान वर्तुल अग्निपिंड ने उसके चेत्र चौंधिया दिए। दृष्टि फिर उस चमक के परे न जा सकी। इख़नातून ने अपने चिंतन और प्रश्न का उत्तर पा लिया-उसने सूर्य को अपना इष्टदेव बनाया।

प्राचीन जातियों के विश्वास में सूरज के गोले ने बार-बार एक कुतूहल पैदा किया था और उसे जानने का प्रयत्न सभी जातियों ने समय-समय पर किया। ग्रीकों का प्रोमेथियस्‌ उसी की खोज में उड़ा, हिंदू पुराणों में जटायु का भाई सम्पाती उसी अर्थ सूर्य की ओर उड़ा और अपने पंखों को झुलसाकर पृथ्वी पर लौटा और इन उड़ानों का परिणाम हुआ अग्नि का ज्ञान और उसका उपयोग। परंतु यह किसी ने न जान पाया कि सूर्य के पीछे की शक्ति क्या है, यद्यपि लगा सबको ही कि शक्ति है कोई उसके पीछे, केवल वे उसे जानते भर नहीं। ऐसा ही भारतीय उपनिषदों के चिंतकों को भी पीछे लगा और उन्होंने सूर्य के बिंब को ब्रह्म का नेत्र कहा।

इख़नातून को भी कुछ ऐसा ही लगा कि सूर्य के बिंब के पीछे काई शक्ति है निश्चय, यद्यपि वह उसे जानता नहीं। फिर इख़नातून ने निश्चय किया कि प्रकृति का सबसे महान्‌, सबसे सत्तावान्‌, सबसे सारवान्‌ सत्य सूर्य के बिंब के पीछे की शक्ति है जिसे हम नहीं जानते। किंतु न जानना सत्ता के अभाव का प्रमाण नहीं है, अव्यक्त की पूजा तो ही ही सकती है, चाहे उसकी मूर्ति न बन सके। और सत्ता जितनी ही अमूर्त्त होती, जितनी ही ज्ञान के घेरे में नहीं समा पाती, उतनी ही अधिक व्यापक होती है, उतनी ही महान्‌। और जिस अज्ञात और अज्ञेय शक्ति तक हमारी मेधा नहीं पहुँच पाती, उसका प्रकाश उस प्रज्वलित अग्निखंड सूर्य के रूप में तो सदा हम तक पहुँचता रहता है, प्रकट ही है। वही सूर्यबिंब के पीछे की शक्ति इख़नातून के विश्वास की दैवी शक्ति बनी। उसी को उसने पूजा।

परंतु देवता या शक्ति का बोध हो जाना एक बात है, उसका विचार सर्वथा दूसरी बात। सत्य का जब दर्शन होता है तब प्रश्न उठता है कि उसकी सत्यता का ज्ञान अपने तक ही सीमित रखा जाए या अपने भिन्न जनों को भी उसका साक्षात्कार कराया जाए। बुद्ध ने जब ज्ञान पाया तब यही प्रश्न उनके मन में उठा और उन्होंने अपना देखा सत्य दूसरों में बाँटने का निश्चय किया। जो पाता है वह देकर ही रहता है। इख़नातून ने पाया था और पाई वस्तु को अपने तक ही सीमित रखना उसे स्वार्थपर लगा और उसने तय किया कि वह देकर ही रहेगा। किंतु मिस्री साम्राज्य की सीमाओं तक सत्य को पहुँचाना कुछ सरल नहीं था। सामने अंधविश्वासों की, परंपराओं की, उनके शक्तिमान्‌ पूजारियों की लौह दीवार खड़ी थी। पर वैसी ही अट्ट आस्था इख़नातून की भी थी, उतना ही दृढ़ उसका संकल्प भी था और उसने अपने सत्य के प्रचार का दृढ़ निश्चय कर लिया। यह नवीन का प्राचीन के विरुद्ध विद्रोह था। नवीन और प्राचीन में घमासान छिड़ गया।

इस युद्ध में इख़नातून की सी ही महाप्राण उसकी भगिनी और पत्नी नफ्रेेतेते के सहयोग से उसे बड़ा बल मिला। आत्माओं और नरक के देवता ओसिरिस और उसकी पत्नी ईसिस, प्तेह और सेत, रा और आमेन आदि देवताओं की लंबी पंक्ति को सूर्य के पीछे की शक्तिवाले व्यापक देवता के ज्ञान से इख़नातून ने बेधना चाहा। वह कार्य और कठिन इस कारण हो गया कि रा और आमेन सूर्य के ही नाम थे जिनकी पूजा सदियों पहले से मिस्र में होती आई थी और इसी कारण सूर्य के नए देवता 'अतोन' को पुराने रा और आमेन के भक्तों का समझ पाना तनिक कठिन था। यह बात पाना और कठिन था कि सूर्य का बिंब अतोन स्वयं वह विश्वव्यापी देवता नहीं है, उसके पीछे की शक्ति वह हस्ती है जिसका सूचक सूर्य का बिंब है, और जो स्वयं संसार की हर वस्तु में रम रहा है, जो अकेला है, मात्र अकेला और जिसके परे अन्य कुछ नहीं है, जो अपने ही प्रकाश से प्रकाशित है, जो चराचर का स्रष्टा है। शंकराचार्य के अद्वैत ब्रह्म का निरूपण, बाइबिल की पुरानी पोथी के नबियों के एकेश्वरवाद, मुहम्मद और एक अल्लाह के इलहाम होने के सदियों पहले इख़नातून इन महात्माओं के विचारों के बीज का आदि रूप में प्रचार कर चुका था। और तब वह केवल 15 वर्ष का था। 30 वर्ष की आयु में आचार्य शंकर ने अपने वेदांत से भारत की दिग्विजय की; उनकी आधी आयु-15 वर्ष-में इख़नातून ने अपने अतोन के एकेश्वरवाद की महिमा गाई। एक भगवान्‌ को समूचे चराचर के आदि और अंत का कारण माननेवाला इतिहास में यह पहला एकेश्वरवादी धर्म था जिसका इख़नातून ने प्रचार किया।

प्राचीन देवताओं के पुरोहितों ने विद्रोह किया। प्राचीन राजाओं की राजधानी थीविज़ थी। इख़नातून ने सूर्य के नाम पर अपनी नई राजधानी बसाई और उस राजधानी के बाहर वह कभी नहीं निकला। उस राजधानी का नाम आखेतातेन था। उसके लिए राजधानी के प्राचीरों के पीछे बने रहना इसलिए और भी संभव हो सका कि वह देश जीतने और युद्ध करने के लिए अपनी नगरी से बाहर नहीं जाएगा। वह गया भी नहीं बाहर। दूर के प्रांतों ने करवट ली, पर वह नहीं हिला। अपने नए धर्म का प्रचार वहीं से करता रहा। प्राचीन देवताओं के पुरोहितों के कफ्रु का फतवा दिया और उसने जवाब में उनकी माफी छीन ली, उनकी दौलत ले ली, उनके देवताओं की लोकोत्तर संपत्ति जब्त कर ली। इस संबंध में इख़नातून ने पर्याप्त कठोरता से कार्य किया। प्राचीन देवताओं की पूजा उसने साम्राज्य में बंद कर दी, उनके मंदिर वीरान कर दिए। उसने अपने देवता अतोन के शत्रु देवता आमेन के अभिलेखों में जहाँ-जहाँ नाम लिखे थे, सर्वत्र मिटवा दिए। उसके पिता का नाम आमेनहेतेप था जिसका एकांश शब्द 'आमेन' निर्मित करता था। परिणाम यह हुआ कि जहाँ-जहाँ पिता का नाम लिखा था उस प्राचीन देवता का नाम होने के कारण पिता का नामांश भी वहाँ-वहाँ से मिटा देना पड़ा।

15 वर्ष के उस बालक इख़नातुन का यह एकेश्वरवाद तो निश्चय 13 वर्ष के बाद, उसके मरने पर, उसके शत्रुओं ने मिटा दिया, पर धर्म और दर्शन के इतिहास में दोनों अमर हो गए-इख़नातून भी, उसके धर्म के सिद्धांत भी। इख़नातून के इस प्रचार के लिए उसे पागल की उपाधि मिली, उसके शत्रुओं ने उसे 'आतोन का अपराधी' घोषित किया। परंतु इख़नातून न तो पागल था और न, जैसा प्राय: हो जाया करता था, वह हत्यारे के छुरे से मरा। पर वह धर्म का दीवाना जरूर था और दीवाना ही शायद वह मरा भी।[1]

इख़नातून की मेधावी सूझ से बढ़कर अपने नए धर्म के प्रचार की क्रांति की भावना थी, और उससे बढ़कर उस प्रचार के लिए प्रीति भरे शब्दों का उसने व्यवहार किया। वह कवि भी था और अपने देवता की शक्ति जिन पंक्तियों में उसने व्यक्त की है वे उपनिषद् के उद्गारों से कम चमत्कारी नहीं हैं। अशोक के शब्दों की ही भाँति उसके हृदय से निकलकर सुनने और पढ़नेवालों के हृदय में वे बैठ जाती थी। तेल-एल-अमरना की चट्टानों पर खुदी इख़नातून की सूर्यशक्ति की स्तुति में बनाई कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं :

जब तू पच्छिमी आसमान के पीछे डूब जाता है,
जगत्‌ अँधेरे में डूब जाता है, मृतकों की तरह;
हर सिंह तब अपनी माँद से निकल पड़ता है,
साँप अपने बिलों से निकल पड़ते हैं, डसने लगते हैं;
अंधकार का राज फैल चलता है,
सन्नाटा दुनिया पर अपना साया डालता चला जाता है।

चमक उठती है धरा जब तू क्षितिज से निकल पड़ता है,
जब तू आसमान की चोटी पर अतोन की आँख से दिन में देखता है,
अँधेरे का लोप हो जाता है।
जब तेरी किरनें परसने लगती हैं, इंसान मुस्करा उठता है,
जाग पड़ता है, अपने पैरों पर खड़ा हो जाता है, तू ही उसे जगाता है।
अपने अंगों को वह धो डालता है, लेबास को पहन लेता है;
फिर उगते हुए तुम्हारे लाल गोले को हाथ उठाकर पूजा है,
तुमको माथा टेकता है।

नावें नील की धारा में चल पड़ती हैं, धारा के अनुकूल भी, विपरीत भी।
सड़कें और पगडंडियाँ खुल पड़ती हैं, कि तू उग चुका है।
तुम्हारी किरनों को परसने के लिए नदी की मछलियाँ उछल पड़ती हैं;
और तुम्हारी किरनें फैले समुंदर की छाती में कौंध जाती हैं।
तू ही माँ के गर्भ में शिशु को सिरजता है,
आदमी में आदमी का बीज रखता है,
तू ही कोख में शिशु को प्यार से रखता है जिससे वह रो न पड़े,
धाय सिरजता है तू ही कोख के बालक के लिए।
और तू ही जिसे सिरजता है उसमें साँस डालता है,
और जब वह माँ की कोख से धरा पर गिरता है, (तू ही)
उसे कंठ में आवाज डालता है,
उसकी जरूरतें पूरी करता है।

तेरे कामों को भला गिन कौन सकता है?
और तेरे काम हमारी नजर से ओझल हैं, नजर से परे।
ओ मेरे देवता, मेरे मात्र देवता, जिसकी शक्ति का काई दावेदार नहीं,
तू ने ही यह जमीन सिरजी, अपने मन के मुताबिक़।

तू मेरे हिए में बसा है, मुझे कोई दूसरा जानता भी नहीं,
अकेला में, बस मैं तेरा बेटा इख़नातून, जान पाया हूँ तुझे।
और तूने मुझे इस लायक बनाया है कि मैं तेरी हस्ती को जान लूँ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 507-08 |

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