इंद्रायन

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इंद्रायन का नाम बँगला तथा गुजराती में भी यही है। संस्कृत में इसे चित्रफल, इंद्रवारुणी, मराठी में कडु इंद्रावण, अंग्रेजी में कॉलोसिंथ या बिटर ऐपल तथा लैटिन में सिट्रलस कॉलोसिंथस कहते हैं। अन्य दो वनस्पतियों को भी इंद्रायन कहते हैं। उनका वर्णन भी नीचे किया गया है।

इंद्रायन की बेल मध्य, दक्षिण तथा पश्चिमोत्तर भारत, अरब, पश्चिम एशिया, अफ्रीका के उच्च भागों तथा भूमध्यसागर के देशों में भी पाई जाती है। इसके पत्ते तरबूज के पत्तों के समान, फूल नर और मादा दो प्रकार के तथा फल नांरगी के समान दो इंच से तीन इंच तक व्यास के होते हैं। ये फल कच्ची अवस्था में हरे, पश्चात्‌ पीले हो जाते हैं और उन पर बहुत सी श्वेत धारियाँ होती हैं। इसके बीज भूरे, चिकने, चमकदार, लंबे, गोल तथा चिपटे होते हैं। इस बेल का प्रत्येक भाग कड़वा होता है।

इसके फल के गूदे को सुखाकर ओषधि के काम में लाते हैं। आयुर्वेद में इसे शीतल, रेचक और गुल्म, पित्त, उदररोग,कफ, कुष्ठ तथा ज्वर को दूर करनेवाला कहा गया है। यह जलोदर, पीलिया और मूत्र संबंधी व्याधियों में विशेष लाभकारी तथा धवलरोग (श्वेतकुष्ठ), खाँसी, मंदाग्नि, कोष्ठबद्धता, रक्ताल्पता और श्लीपद में भी उपयोगी कहा गया है।

यूनानी मतानुसार यह सूजन को उतारनेवाला, वायुनाशक तथा स्नायु संबंधी रोगों में, जैसे लकवा, मिरगी, अधकपारी, विस्मृति इत्यादि में लाभदायक है। यह तीव्र विरेचक तथा मरोड़ उत्पन्न करनेवाला है, इसलिए दुर्बल व्यक्ति को इसे न देना चाहिए। इसकी मात्रा डेढ़ से ढाई माशे तक की होती है। इसका चूर्ण तीन माशे तक बबूल की गोंद, खुरासानी अजवायन के सत्व इत्यादि के साथ, जो इसकी तीव्रता को घटा देते हैं, गोलियों के रूप में दिया जाता हैं।

रासायनिक विश्लेषण से इसमें कुछ उपक्षार (ऐल्कलॉड) तथा कॉलोसिंथिन नामक एक ग्लूकोसाइड, जो इस ओषधि का मुख्य तत्व है, पाए गए हैं। ब्रिटिश मटेरिया मेडिका के अनुसार इससे ज्वर उतरता है। इसका उपयोग तीव्र कोष्ठबद्धता, जलोदर, ऋतुस्राव तथा गर्भस्राव में भी किया जा सकता है।

लाल इंद्रायन का लैटिन नाम ट्रिकोसेंथन पामाटा है। इसे संस्कृत तथा बँगला में महाकाल कहते हैं। इसकी बेल बहुत लबी तथा पत्ते दो से छह इंच के व्यास के, त्रिकोण से सप्तकोण तक होते हैं। फूल नर और मादा तथा श्वेत रंग के, फल कच्ची अवस्था में नारंगी रंग के, किंतु पकने पर लाल तथा 10 नांरगी धारियोंवाले होते हैं। फल का गूदा हरापन लिए काला होता है तथा फल में बहुत से बीज होते हैं। इस पौधे की जड़ बहुत गहराई तक जाती है और इसमें गाँठें होती हैं।

रासायनिक विश्लेषण से इसके फल के गूदे में कॉलोसिंथिन से मिलता जुलता ट्रिकोसैंथिन नामक पदार्थ पाया गया है। लाल इंद्रायन भी तीव्र विरेचक है। आयुर्वेद में इसे श्वास और फुफ्फुस के रोगों में लाभदायक कहा गया है।

जंगली या छोटी इंद्रायन को लैटिन में क्यूक्युमिस ट्रिगोनस कहते हैं। इसकी बेल और फल पूर्वोक्त दोनों इंद्रायनों से छोटे होते हैं।

इसके फल में भी कॉलोसिंथिन से मिलते जुलते तत्व होते हैं। इसका हरा फल स्वाद में कड़वा, अग्निवर्धक ,स्वाद को सुधारनेवाला तथा कफ और पित्त के दोषों को दूर करने वाला बताया गया है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 502 |

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