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अमिताभ चौधरी

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अमिताभ चौधरी
अमिताभ चौधरी
पूरा नाम अमिताभ चौधरी
जन्म 11 नवम्बर, 1927
जन्म भूमि कोलकाता
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र पत्रकारिता
भाषा बांग्ला
विद्यालय ए.एम. कॉलेज, सेंट जेवियर्स कॉलेज तथा आशुतोष कॉलेज, कलकत्ता
पुरस्कार-उपाधि मेग्सेसे पुरस्कार
प्रसिद्धि पत्रकार
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी अमिताभ चौधरी ने अपना एक नया साप्ताहिक स्तम्भ 'नेपथ्य दर्शन' शुरू किया था। उन्होंने इसकी संरचना में खुद को 'श्री निरपेक्ष' का नाम दिया, जिसका अर्थ है- "जो किसी पक्ष का पोषक नहीं है।" इस स्तम्भ के माध्यम से अमिताभ चौधरी ने एक से एक भेद देने वाली खोजी पत्रकारिता का उदाहरण प्रस्तुत किया।
अद्यतन‎ 05:56, 10 अगस्त, 2016 (IST)
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

अमिताभ चौधरी (अंग्रेज़ी: Amitabh Choudhary, जन्म- 11 नवम्बर, 1927, कोलकाता) नैतिकता और ईमानदारी का मूल्य समझने वाले पत्रकार थे। पत्रकारिता के नए दौर में उन्होंने कार्य किया था। उन्होंने बांग्ला प्रेस में काम करते हुए यह सिद्धन्त अपनाया था कि चाहे वह राजनेता हो या अधिकारी, जनसेवा भाव उसमें पूर्ण निष्ठा से बना रहना चाहिए। बांग्ला के दैनिक समाचार पत्र 'जुगांतर' के सहायक सम्पादक पद से शुरू होकर वह जहाँ कहीं भी पहुँचे, उन्होंने अपना यह सिद्धांत बराबर बनाए रखा और इसके जरिए वे निष्ठापूर्वक नागरिक तथा समुदाय के हित में खोजी पत्रकार की भूमिका निभाते रहे। अमिताभ चौधरी की इस कर्तव्यनिष्ठा के लिए उन्हें 1961 का 'मेग्सेसे पुरस्कार' प्रदान किया गया था।

जन्म

अमिताभ चौधरी का जन्म 11 नवम्बर, सन 1927 को कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में हुआ था। उनके पिता शिशिर चौधरी की मृत्यु तभी हो गई थी, जब अमिताभ केवल चार माह के थे। उनका पालन-पोषण उनकी माँ प्रीतिरानी चौधरी ने किया।

शिक्षा

अमिताभ चौधरी की शिक्षा चन्द्रनाथ हाईस्कूल, कलकत्ता से शुरू हुई तथा 1944 में उन्होंने नेत्रोकोना, मेमन सिंह (पूर्वी बंगाल) के दत्ता हाईस्कूल से मैट्रिक की परीक्षा पास की। मैट्रिक के बाद अमिताभ की पढ़ाई कलकत्ता के ए.एम. कॉलेज, सेंट जेवियर्स कॉलेज तथा आशुतोष कॉलेज में हुई, जहाँ से उन्होंने 1948 में अंग्रेज़ी में (ऑनर्स) इकॉनामिक्स तथा गणित के साथ स्नातक की डिग्री प्राप्त की।[1]

विवाह

वर्ष 1959 में अमिताभ चौधरी का विवाह अपने समय की जानीमानी चित्रकार नेपा से हुआ।

'जुगांतर' के लिए कार्य

कॉलेज से निकलते ही अमिताभ चौधरी को बंगाल के प्रभावशाली दैनिक 'जुगांतर' में काम मिल गया। 'जुगांतर' कलकत्ता के प्रसिद्ध समाचार प्रकाशन 'अमृत बाज़ार पत्रिका' का सहयोगी समाचार पत्र था और उस समय उसकी बहत्तर हज़ार प्रतियाँ हर रोज़ बिकती थीं। 'जुगांतर' में काम करते हुए अमिताभ चौधरी ने 1952 में मॉडर्न इंडियन लैंग्वेजेज़ में एम.ए. की डिग्री कलकत्ता विश्वविद्यालय से प्राप्त कर ली। इस बीच उनका लेखन मानवीय त्रासदी के बहुत-से पक्षों को उठाते हुए प्रकाशित होता रहा। भारत की आज़ादी के बाद देश के विभाजन और उससे उत्पन्न विस्थापन की दर्दनाक स्थिति से अमिताभ बहुत द्रवित हुए और उन्होंने इसे लेकर अपनी नई दृष्टि तथा शैली में बहुत कुछ लिखा, जिसे बंगाल प्रेस ने सम्मान से प्रकाशित किया। 1956 में अमिताभ चौधरी 'जुगांतर' के सहायक सम्पादक बिना दिए गए। वह इस पद पर काम करने वाले, किसी भी अखबार के सबसे कम उम्र के व्यक्ति थे। इसके पहले उन्हें संसदीय मामलों की रिपोर्टिंग की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। इस काम में अमिताभ ने जटिल संसदीय प्रसंगों को भी सरल तथा लोकप्रिय ढंग से प्रस्तुत किया। इसकी बहुत प्रशंसा की गई तथा उनके बहुत-से पत्रकार साथियाँ ने उसे अपना लिया।[1]

'नेपथ्य दर्शन' की शुरुआत

सहायक सम्पादक बनने के बाद अमिताभ चौधरी ने अपना एक नया साप्ताहिक स्तम्भ शुरू किया, जिसका नाम उन्होंने 'नेपथ्य दर्शन' दिया। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, इस स्तम्भ में वे पर्दे के पीछे का परिदृश्य उजागर करने का काम करते थे। उन्होंने इसकी संरचना में खुद को श्री निरपेक्ष का नाम दिया, जिसका अर्थ है- "जो किसी पक्ष का पोषक नहीं है।" इस स्तम्भ के माध्यम से अमिताभ चौधरी ने एक से एक भेद देने वाली खोजी पत्रकारिता का उदाहरण प्रस्तुत किया। इस स्तम्भ के लिए अमिताभ ने 'जुगांतर' के स्वामियों के सामने यह बात रखी कि वह उसके लिए कोई अतिरिक्त पारिश्रमिक नहीं लेंगे, लेकिन उन्हें इसके लिए विषय को चुनने की तथा प्रस्तुत करने की पूरी स्वतंत्रता दी जाए। 'जुगांतर' के स्वामियों ने न सिर्फ यह शर्त स्वीकार की बल्कि इस स्तम्भ के कारण दूसरे विरोधों का भी सामना बिना झुके, अमिताभ को पूरी तरह बचाते हुए किया।

अमिताभ चौधरी के इस स्तम्भ की ताकत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आसाम में अल्पसंख्यक बांग्ला भाषी लोगों को लेकर हुए दंगों के समय, इस विषय पर चल रहा, संसदीय बहस में अमिताभ का आलेख, जो इसी सन्दर्भ में लिखा गया था, महत्त्वपूर्ण माना जाते हुए विभिन्न भाषाओं में अनूदित कराकर संसद में वितरित कराया गया था और इसे एक संसदीय जाँच कमेटी की रिपोर्ट जैसी मान्यता देते हुए प्रशासनिक रूप से स्वीकार किया गया था। इसी तरह अमिताभ चौधरी की 1957 में दामोदर वैली कॉरपोरेशन के कु-प्रशासन पर दी गई रिपोर्ट ने संसद में प्रश्न खड़ा कर दिया था और प्रधानमंत्री ने इस पर जाँच के आदेश जारी किए थे। जाँच की रिपोर्ट में अभिताभ द्वारा उठाए गए प्रश्नों की सत्यता सामने आई थी, जिसके कारण न केवल सम्बन्धित नियमों में परिवर्तन किया गया था, बल्कि वहाँ के चेयरमैन को रिटायर करते हुए बोर्ड के पुनर्गठन के आदेश पारित हुए थे।[1]

आम आदमी के दु:ख-दर्द का ध्यान

  • अमिताभ के दृष्टिकोण में आम आदमी के दुख-दर्द का बड़ा स्थान था और उनकी पत्रकारिता इस पर विशेष ध्यान देती थी। एक बार एक लोकोमोटिव ट्रेन के फ़ायरमैन की गर्मी के कारण मौत हो गई थी। उसकी पत्नी और उसका छोटा बच्चा किसी मुआवज़े का हकदार इसलिए नहीं था, क्योंकि चार साल की नौकरी के बावजूद वह स्थायी कर्मचारी नहीं था। इस पर अमिताभ चौधरी की कलम और तथ्यपरक रिपोर्ट ने रेलवे के जनरल मैनेजर को मजबूर कर दिया था कि उसके परिवार को मुआवज़ा दिया जाए और उसकी पत्नी को रेलवे में कोई उपयुक्त नौकरी मिले।
  • ऐसा ही एक मामला एक एक्साइज इंस्पेक्टर के साथ भी था। वह एक अवैध शराब की फैक्टरी पर छापा मारते समय जान से हाथ धो बैठा था। इस पर भी 'श्री निरपेक्ष' यानी अमिताभ चौधरी के हस्तक्षेप से उस इंस्पेक्टर की पत्नी के लिए पेंशन की व्यवस्था की गई तथा उसके बच्चों के लिए शिक्षा भत्ता दिया गया।

इस तरह 'नेपथ्य दर्शन' के माध्यम से अमिताभ चौधरी ने, न केवल कई मामले उजागर किए, बल्कि बेहद बारीकी से मामलों का अध्ययन करके उनके पक्ष में सभी सबूत दस्तावेज़ जुटाए और उन्हें व्यवस्था के सामने रखा। इस क्रम में अमिताभ ने ढाई सौ से ज्यादा मामले उठाए, जिनमें सरकारी तंत्र की उच्च स्तरीय मशीनरी में भ्रष्टाचार तथा अराजकता का पर्दाफाश हुआ और सम्बंधित अधिकारियों को अपने किए का परिणाम भुगतना पड़ा। इसके साथ ही अमिताभ के इस स्तम्भ ने जनहित के बहुत-से प्रसंगों में बहस का माहौल बनाया। सामाजिक मामलों में भी सार्थक हल निकाला गया। ऐसे बहुत-से दृष्टांत सामने रखे जा सकते हैं, जो अमिताभ चौधरी का न्याय तथा जनहित के प्रति आग्रह सामने लाते हैं। इस सन्दर्भ में अमिताभ अपने अनुभव का निचोड़ बताते हैं। वे कहते हैं कि "मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ कि पत्रकार को खबर देते समय तटस्थ तहना चाहिए।" उनका मानना था कि "पत्रकार को समूचे मामले में किसी-न-किसी का पक्षधर बनकर उसकी पैरवी में पूरे जुनून से खड़े होने चाहिए। सच्चा पत्रकार हमेशा सत्य के पक्ष में उसकी ताकत बनकर खड़ा होता है, लेकिन यह भी ज़रूरी है कि सच की तह तक पहुँचने के दौर में वह खुद को तटस्थ बनाकर रखे और किसी पूर्वाग्रह से खुद को बचाता चले। वह अपनी पक्षधरता का पूरा सच जानने के बाद तय करे वरना वह पूरा सच कभी भी सामने नहीं ला पाएगा।"[1]

सेमीनारों में भागीदारी

अमिताभ चौधरी को 1958 में 'अमेरिकन प्रेस इंस्टीट्यूट' द्वारा आयोजित एशियन जर्नलिस्ट्स के सेमीनार में भाग लेने का मौका भी मिला। अभिताभ 'इंटरनेशनल प्रेस इंटीट्यूट' द्वारा आयोजित दो एशियाई सेमीनारों में प्रशिक्षक के तौर पर भी आमंत्रित किए गए, यह सेमिनार दिल्ली में नवम्बर, 1960 को तथा लाहौर में मार्च, 1961 में आयोजित किए गए थे। इन सेमीनारों में अमिताभ चौधरी द्वारा प्रस्तुत खोजी पत्रकारिता पर आलेख पढ़े गए तथा उन पर विचार-विमर्श किया गया। भारत तथा पाकिस्तान के भागीदारों में से बहुतों ने उनके तौर-तरीकों को अपने काम में अपनाया। इन आलेखों में अमिताभ चौधरी के पत्रकारिता के अनुभवों का निचोड़ था, जो उनके काम तथा समाज से रिश्तों को सामने लाता था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 मैग्सेसे पुरस्कार विजेता भारतीय |लेखक: अशोक गुप्ता |प्रकाशक: नया साहित्य, कश्मीरी गेट, दिल्ली |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 16 |

बाहरी कड़ियाँ

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