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अभिव्यंजनावाद

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अभिव्यंजनावादी चित्रकला

अभिव्यंजनावाद (अंग्रेज़ी: Expressionism) इटली, जर्मनी और ऑस्ट्रिया से प्रादुर्भूत प्रधानत: मध्य यूरोप की एक चित्र-मूर्ति-शैली है, जिसका प्रयोग साहित्य, नृत्य और सिनेमा के क्षेत्र में भी हुआ है। सिद्धांत रूप में इसका साहित्यिक प्रतिपादन इटली के विचारक बेनेदितो क्रोचे ने किया था।

अभिव्यंजनावाद के प्रधानतः तीन प्रकार हैंः-
  1. विरूपित, यद्यपि सर्वथा अमूर्त नहीं,
  2. अमूर्त और
  3. नव वस्तुवादी।
  • क्रोचे के अनुसार "अंतःप्रज्ञा के क्षणों में आत्मा की सहजानुभूति ही अभिव्यंजना है"। कला के क्षेत्र में इसे आवाँ गार्द (हिरावल दस्ते) के रूप में जाना जाता है।
  • अभिव्यंजनावाद की मूल संकल्पना है कि कला का अनुभव बिजली की कौंध की तरह होता है, अतः यह शैली वर्णनात्मक अथवा चाक्षुष न होकर विश्लेषणात्मक और आभ्यंतरिक होती है।
  • उस भाववादी शैली के विपरीत जिसमें कलाकार की अभिरुचि प्रकाश और गति में ही केंद्रित होती है। यहीं तक सीमित न होकर अभिव्यंजनावादी प्रकाश का प्रयोग बाह्म रूप को भेद भीतर का तथ्य प्राप्त कर लेने, आंतरिक सत्य से साक्षात्कार करने और गति के भावप्रक्षेपण आत्मान्वेषण के लिए करता है। वह रूप, रंगादि के विरूपण द्वारा वस्तुओं का स्वाभाविक आकार नष्ट कर अनेक आंतरिक आवेगात्मक सत्य को ढूँढ़ता है।
  • इनमें से पहले वर्ग के कलाकारों में प्रधान हैं किर्चनर नोर्ल्ड, पेख्स्टीन, मूलर; दूसरे में मार्क, कांडिसकी, क्ली, जालेंस्की और तीसरे में ओटो, डिक्स, जार्ज ग्रोत्स आदि। जर्मनी से बाहर के अभिव्यंजनावादियों में प्रधान रूआल, सूतें और एदवार मंक हैं। अभिन्यंजनावाद ललित कलाओं के माध्यम से साहित्य में आया। यही आंदोलन इटली में भविष्यद्वाद (फ़्यूच्यूरिस्ट) और क्रांतिपूर्व रूप में 'क्यूबोफ़्यूचरिज़म' कहलाया इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग फ्रांसीसी चित्रकार हेव ने 1901 में किया, इसे साहित्यालोचन में प्रयुक्त किया।
  • आस्ट्रिया के लेखक हेरमान बाहर ने 1914 ई. में। इसका मूल उद्देश्य था यांत्रिकता के विरुद्ध विद्रोह। यथार्थवाद की परिणति प्रकृतिवाद और नव्य रोमांसवाद तथा बिंबवाद आदि से ऊबकर उसकी प्रतिक्रिया में अभिव्यंजनावाद चला। इसमें आँरी बेर्गसाँ नामक फ्रांसीसी दार्शनिक के 'जीवनोत्प्लव' और जीवनीशक्ति' (एलाँ विताल) सिद्धांत ने और परिपुष्टि दी। यह बाद में हुस्सिर्ल सहज ज्ञानाश्रित क्षणिकवाद दस्ताफएव्सकी और स्ट्रिडवर्ग के मानवात्मा के आविष्कार आदि के रूप में दार्शनिक प्रतिष्ठा पाता रहा । फ्रायड के मनोविश्लेषण और चित्तविकलन के सिद्धांतो ने, स्वप्न तथा अर्धचेतना के प्रतीकात्मक अर्थाभिव्यंजन पद्धति ने अभिव्यंजनावाद का और समर्थन किया। अभिव्यक्तियों में भी वह अपना आश्रय खोजती है।[1]
  • अभिव्यंजनावादी बेजान चीजों को जिंदा बनाकर बुलवाते हैं। यथा-'गंगा के घाट यदि बोलें' या 'बुर्जियों ने कहा' या 'गली के मोड़ पर लेटर बक्स, दीवार या म्युनिसिपल लालटेन की बातचीत' आदि। उन्हें जीवन के वर्तमान के बेहद असंतोष होता है, जीवन को वे मृत मानकर चलते हैं, मृतकों जीवित बनाने का यत्न करते हैं। अभिव्यंजनावादियों में भी कई प्रकार हैं; कुछ केवल अंध आवेग या चालनाशक्ति पर जोर देते हैं, कुछ बौद्धिकता पर, कुछ लेखकों ने मनुष्य और प्रकृति को समस्या को प्रधानता दी, कुछ ने मनुष्य और परमेश्वर की समस्या को। इस विचारपद्धति का सबसे अधिक प्रभाव यूरोप के नाट्य साहित्य और मंच पर पड़ा। 1912 ई. में सीर्जे के दि बेगर या कैसर के फ्राम मार्निंग टिल मिडनाइट ऐसे ही नाटक थे। अधिकतर अभिव्यंजनावादी लेखक हिटलर के अभ्युदय के साथ जर्मनी से निष्कासित कर दिए गए, यथा अर्नस्ट टालर; अन्य कुछ लेखक यथा जोहर्ट, हैनिके, लेर्श आदि, नात्सी बन गए।[2]




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 184 |
  2. सं.ग्रं.-एच. कार्टर: दि न्यू स्पिरिट इन दि यूरोपियन थियेटर 1914-24 (1926); आर. सैमुएल ऐंड आर.एच.थामस : एक्स्प्रेशन इन जर्मन लाइफ, लिटरेचर ऐंड दि थियेटर, 1910-24 (1939); सी. ब्लैकबर्न : 'कांटिनेंटल इन्फ़्लुएन्सेज़ आन यूजीन ओ' नील्स एक्स्प्रेसिव ड्रामाज़; सी.ई.डब्ल्यू.ए. देहल्‌स्त्रोम : स्किंडबर्ग्स ड्रैमैटिक एक्स्प्रेसिज़्म (1930)।

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