जर्मनी संघीय गणराज्य में हिन्दी -डॉ. लोठार लुत्से

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लेखक- डॉ. लोठार लुत्से

          इस समय जर्मनी-संघीय गणराज्य के विश्वविद्यालयों में हिन्दी तथा दक्षिण एशिया को अन्य आधुनिक भाषाओं और साहित्य का मुख्य विषय के रूप में अध्ययन किया जा रहा है। यह अध्ययन पी.एच.डी. की उपाधि तक केवल हीडलवर्ग विश्वविद्यालय के साउथ एशिया इंस्टीयूट में ही किया जा सकता है। इस में कोई गर्व की बात नहीं है। इसके विपरित यह भी कहा जा सकता है कि यह स्थिति एक ऐसे देश के लिए निश्चय ही सन्तोषजनक नहीं है जो परंपरा से भारतीय उपमहाद्वीप के साथ पूरी तरह प्रतिबद्ध रहा है। फिर भी एक ऐसी शुरूआत की गई है कि इससे वर्तमान स्थिति में इस देश में रचनात्मक आत्मआलोचना की प्रवृत्ति में आधुनिक प्राच्यविद्या की समस्याओं और संभावनाओं का परीक्षण करने की आवश्यकता है। कलासिक जर्मन प्राच्यविद्या की व्यापक एवं उपयुक्त परंपरा रही है। अन्य बातों के साथ आधुनिक प्राच्य विद्या का अब तक विकास समान रूप से होता रहा है और अभी भी अपभ्रंश का रूप जो उज्ज्वल सांस्कृतिक अतीत और विकृत वर्तमान के बीच तुलना करने से उभरा है, उस ने हिन्दी और अन्य आधुनिक दक्षिण एशियाई भाषाओं और साहित्य के बारे में हमारे दृष्टिकोण को अधिकांश रूप से निर्धारित किया है।
          हिन्दी और अन्य दक्षिण एशियाई भाषाओं के संदर्भ में ‘आधुनिक’ उस विकास की ओर संकेत करता है जो 19 वीं शताब्दी के पहले 25 वर्षों में प्रारंभ हुआ था। अर्थात यह वह समय था जब पश्चिमी चितंन और लेखन, विशेषकर अंग्रेजी का प्रभाव बंगाल के माध्यम से काफी पड़ा था। इस प्रकार भारतीय सांस्कृतिक इतिहास का एक युग था जो भारतीय कलाकारों और बुद्धिजीवियों के प्रयास से पश्चिमी संस्कृति के साथ जुड़ा हुआ था और जिसमें अंधानुकरण से लेकर आलोचनात्मक अस्वीकरण या सर्जनात्मक ग्रहणशीलता की बात भी थी। यह संघर्ष अभी भी धीमे-धीमे चल रहा है। इस प्रसंग में हिन्दी और अन्य आधुनिक दक्षिण एशियाई भाषाओं और साहित्यों का अध्ययन एक प्रकार से मिश्रित संस्कृति या सांस्कृतिक मिश्रण के भाषायी और साहित्यिक पक्षों का अध्ययन होगा। संस्कृति में जो हास हुआ है और सांस्कृतिक निर्देषिता की जो काल्पनिक अवस्था विलीन हो गई, इस पर शोक प्रकट करना तथा इस संघर्ष को अभारतीय या पश्चिमीकृत रूप कहना विकास का अत्यंत सरलीकरण है। इसके लिए हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि इसका जिम्मेदार पश्चिम है जिसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। इसके लिए हम में से कुछ लोग क्षुब्ध भी हैं। उससे हिन्दी और अन्य दक्षिण एशियाई भाषाओं के उन असंख्य प्रयोक्ताओं के साथ बहुत बड़ा अन्याय होगा कि जो अभी भी कितने उपनिवेशी अतीत के प्रभाव को समाप्त करने में प्रयत्नशील है और जो अपनी भाषा और साहित्य की (चाहे वह मौखिक हो या लिखित) बढ़ती हुई सफलता के लिए प्रयत्नशील हैं।
          हिन्दी और अन्य आधुनिक दक्षिण एशियाई भाषाओं और साहित्य के विद्यार्थी के लिए यह समझना इससे अधिक शैक्षिक रूचि का काम है और इस संघर्ष को समझना शैक्षिक दृष्टि से और अच्छा है। ऐसा समझने से हिन्दी और अन्य आधुनिक दक्षिण एशियाई भाषाओं को समझने में सहायता मिलेगी। यदि मुख्यत: उन भाषाओं और साहित्यों का अध्ययन करने का निर्णय सांस्कृतिक दृष्टि से उत्प्रेरित हों तो यह उत्प्रेरणा मानवीय भावनाओं से जुड़ी हुई है।
          इस क्षेत्र में जिन देशों की तुलना की जा रही है, उनसे हटकर पहले की उपनिवेशवादी शक्तियां तथा संयुक्त राज्य अमरीका या पूर्वी यूरोपीय देश, जिसमें जर्मन जनवादी गणराज्य भी शामिल है– आगे है। इसके आगे होने के कारण वस्तुत: शिक्षा को कम महत्व देना है। जर्मन संघ गणराज्य के पास कभी भी निश्चित कार्य-शैली या स्पष्ट राजनीतिक उत्प्रेरणा नहीं रही जो दूसरे देशों में कुछ न कुछ मिलती है। हिन्दी तथा अन्य आधुनिक दक्षिण एशियाई भाषाओं के जिस अध्ययन को सरकार ने बड़े पैमाने पर निर्दिष्ट किया है उस के विकास के लिए वह उत्तरदायी है। चूँकि अब भारत और पश्चिम जर्मनी में विकासशील (अर्थात सहायता प्राप्त करने वाले देश) तथा सहायता देने वाले औद्योगिक देश क्रमश: भ्रामक भूमिका निभानी शुरू की है, इसलिए उनके आपसी संबंधों ने उस परंपरागत सरलता को खो दिया है जो प्रथमत: और अंतत: आपसी सांस्कृतिक सद्भाव पर आधारित था। यही कारण है कि हमारे इस राजनीतिक या शैक्षिक परिवेश में जब कोई विद्यार्थी हिन्दी या किसी अन्य दक्षिण एशियाई भाषा और साहित्य (कलासिकी हो या आधुनिक) के अध्ययन का यदि व्यक्तिगत रूप से निर्णय लेता है तो उसे बिना किसी सरकारी प्रोत्साहन के मदद ही नहीं मिलती। इतना ही नहीं उसे अभी इससे कोई विशेष रोजगार भी मिलने की संभावना नहीं है। वस्तुत: प्राच्यविदों को अभी भी क्षेत्रीय विशेषज्ञों के रूप में सरकार द्वारा मान्यता मिलना शेष है।
          वस्तुत: इस देश में अन्य विषयों के साथ-साथ कलासिकी प्राच्यविद्या के विद्यार्थी की अपेक्षा आधुनिक प्राच्यविद् भारत या दूसरे दक्षिण एशियाई देशों के व्यक्तियों और अधिकारियों से प्रोत्साहन तथा समर्थन मिलने पर कार्य कर पाएगा। ऐसा होना निश्चित रूप में उसके ऊँचे हौंसले के लिए घातक है। अगर आंगल-भारतीय कथा-साहित्य को कोई लब्धप्रतिष्ठित भारतीय लेखक और बुद्धिजीवी उससे कहता है (जैसा कि इस देश में कुछ वर्षों पूर्व हुआ था) कि उसे इस पिछड़ी भाषा तथा साहित्य के अध्ययन पर अपना समय नष्ट नहीं करना चाहिए या वे ये कहें कि जो कुछ भी आधुनिक भारतीय साहित्य में है वह अंग्रेजी में लिखा जा चुका है।
          वस्तुत: अपने पूरे इतिहास में हिन्दी साहित्य शायद ही कभी इतना समृद्ध और जीवंत नजर आया हो जितना वह आज है। यही कारण है कि कोई भी विद्यार्थी जो किसी कठिन भाषा को सीखने की चुनौती स्वीकार करता है वह हिन्दी जैसी कठिन भाषा की ओर आसानी से प्रवृत्त हो सकता है। हांलाकि हिन्दी लेखन में दो मुख्य प्रवृत्तियाँ दिखाई पड़ी हैं, पहली तो यह कि साहित्यिक भाषा आम जनता की भाषा के निकट आई है। अगर उसे राजनीतिक शब्दावली में कहें तो यह होगा कि साहित्यिक भाषा का लोकतंत्रीकरण हुआ है, जिसके कारण ज्यादा से ज्यादा पाठक अथवा श्रोता साहित्य में अपनी भूमिका निभा सकते हैं (ठीक वैसे ही जैसे राजनीति खेल रहे हों)। दूसरी विशेषता है साहित्य का भाषायी स्थानीकरण (लिंविस्टिक लोकोलाइजेशन) विशेष रूप से न केवल खड़ी बोली में वरन् लिखित व्याख्यात्मक गद्य के क्षेत्र में ‘अनेकता में एकता’ का सिद्धांत स्पष्ट रूप से प्रतिध्वनित होता है और यह वह सिद्धांत है जिस पर भारत जैसे विस्तृत और विभिन्नता से भरे देश का भविष्य निश्चित तौर पर निर्भर करता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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