अवस्थित और उपस्थित

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अवस्थित और उपस्थित दोनों अलग-अलग अर्थों के लिए जाने वाले शब्द हैं। संस्कृत में ‘स्था’ का अर्थ है ‘खड़ा होना, ठहरना’ जिस से बने ‘स्थित’ शब्द का अर्थ निकलता है ‘खड़ा हुआ, उठ कर खड़ा होने वाला, ठहरने वाला विद्यमान’।

अवस्थित

‘अवस्था’ और ‘अवस्थित’ दोनों में ‘अव’ जुड़ा हुआ है, जिस का काम रहता है शब्द में चिपक कर उस के अर्थ में ‘नीचे, कमी, अनुचित दूर, संकल्प, परिव्याप्ति, विशेष रूप से’-जैसे किसी अर्थ को जोड़ देना। फलतः ‘अवस्था’ अर्थ की दृष्टि से जोड़-तोड़ के बाद सीधा-सा ‘स्थिति-वाचक है (विशेष अर्थ में आयु का उतना भाग ‘अवस्था’ है, जितना कथित समय तक बीत चुका हो), जब कि ‘अवस्थित’ शब्द अर्थ में फैल-फाल कर ‘रहा हुआ, ठहरा हुआ, टिका हुआ, सहारा लिया हुआ, किसी विशिष्ट स्थान में रुका हुआ किसी विशिष्ट अवस्था में आया हुआ’ और ‘उद्देश्य में स्थिर’ या ‘दृढ़’ के लिए इस्तेमाल होता है।

उपस्थित

‘उप’ के अनेक अर्थो में एक अर्थ ‘निकटता’ है, इसलिए जब ‘स्थित’ माने ‘विद्यमान’ है, तो उपस्थित’ माने ‘पास विद्यमान’ या ‘निकट पहुँचा हुआ’ हुआ। जिस प्रकार ‘अवस्थित-अवस्था’ का जोड़ा मिलता है, उस प्रकार ‘उपस्थित-उपस्था’ का जोड़ा नहीं मिलता; हाँ, ‘उपस्थानम्’ और ‘उपस्थ’ ज़रूर मिलते हैं। ‘उपस्थानम्’ का अर्थ ‘निकट पहुँचना’ के बाद किस खूबसूरती से ‘पूजा-करना’ ‘देवालय’, ‘स्मरण’ भी होता चला गया है, यह देख कर संस्कृत भाषा की जय बोलने को मन करता है। दूसरी ओर, ‘उपस्थ’ के अर्थों के फैलाव में भी संस्कृत का कमाल देखिए-‘शरीर का भध्य भाग, गोद, पेड़ू कूल्हा, गुदा, जननेंद्रिय’। ‘स्था’ ऊपर उदाहृत शब्दों में तो है ही, ‘संस्था, संस्थान, स्थान’ आदि में भी मौजूद है। जाहिर है कि इन सब में भी ‘स्थित, टिकाऊ, विद्यमान’ होने का भाव विद्यमान है।[1]

उदाहरण

इस समय मैं अपने घर में ‘अवस्थित’ होते हुए भी सेवा में ‘उपस्थित’ हूँ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मानक हिन्दी के शुद्ध प्रयोग भाग 1 (हिंदी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 31 दिसम्बर, 2013।

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